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आंबेडकरवादी सिद्धांतों को जख्म दे गया दलित आंदोलन

Posted at: Apr 6 , 2018 by Dilersamachar 10011

दिलेर समाचार, देश  में शांति व परस्पर सौहार्द को लेकर बाबा साहिब भीमराव रामजी आंबेडकर कितने संजीदा थे इसका अनुमान उन विचारों से लगाया जा सकता है जिसमें उन्होंने कहा कि ''कानून और व्यवस्था राजनीतिक शरीर की दवा है। जब राजनीतिक शरीर बीमार पड़े तो दवा जरूर दी जानी चाहिए।'' अभी 2 अप्रैल सोमवार को देश ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम पर सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों को लेकर जो हिंसा, आगजनी व असमाजिक तत्वों का तांडव देखा उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इस आंदोलन ने बाबा साहिब के सिद्धांतों को घायल करके रख दिया है। संपत्ति के नुक्सान की भरपाई तो देर-सवेर हो जाएगी परंतु आंदोलन ने जातिवाद की खाई को जिस तरह फिर से चौड़ा कर दिया उसे पाटने में लंबा समय लगेगा। इसके लिए आंदोलनकारियों, सरकार व विपक्ष में किसी को भी दोषमुक्त नहीं किया जा सकता। सभी पक्षों ने जिम्मेवारी निभाई होती तो न तो इतनी बेशकीमती जानें जाती, न ही जातिवादी द्वेष फैलता और यह पूरा आंदोलन दलित चेतना की उदाहरण बन जाता जो आज अपराधियों की भांति कटघरे में खड़ा दिख रहा है।

भारत बंद वाले दिन सुबह से ही दलित संगठनों के कार्यकर्ता जमा होने लगे थे, हालांकि उस समय किसी ने नहीं सोचा था कि इस आंदोलन की आग में 8 लोग झुलस जाएंगे। मध्य प्रदेश में 6, राजस्थान में 1 और उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद में एक व्यक्ति की मौत ने इस आंदोलन को रक्तरंजित कर दिया। उत्तर प्रदेश में दंगाईयों ने पुलिस चौकी में आग लगा दी। राजस्थान और मध्य प्रदेश में आंदोलनकारी आपस में ही भिड़ गए जिसमें 30 से ज्यादा लोग जख्मी हो गए। पंजाब, बिहार औऱ ओडि़सा भी बंद से त्रस्त रहा। आंदोलनकारियों ने रेल व सड़क पर पहिये थाम दिये और जमकर हंगामा किया। कई स्थानों पर रोगी वाहनों (एंबुलेंसों) को रोकने व महिलाओं और बच्चों पर भी हमलों के घटनाक्रम भी टीवी स्क्रीन पर दिखे। यह सभी दृश्य किसी लोकतांत्रिक देश ही नहीं बल्कि पूरी मानवता के लिए शर्मनाक थे। पुलिस व लोगों पर पत्थर फेंकने वाले प्रदर्शनकारी कश्मीरी पत्थरबाजों का ही दूसरा अवतार लग रहे थे। आंदोलन के नेता या तो इतने कमजोर थे कि वे अपने लोगों को नियंत्रित नहीं कर पाए और अपने भीतर छिपे असमाजिक तत्वों को नहीं पहचान सके या फिर उनकी मंशा भी शायद यही रही हो। इन तीनों परिस्थितियों में आंदोलन का नेतृत्व अपनी असफलता की जिम्मेवारी से बच नहीं सकता।

बात करते हैं सरकार की, जिस पर लोगों की जानमाल की सुरक्षा का संवैधानिक जिम्मा है वह परिस्थितियों की गंभीरता को भांपने में असफल रही। कई प्रश्न हैं जो सरकारों की कार्यप्रणाली को अक्षमता के दायरे में लाते हैं। आंदोलन से पहले इसके आयोजकों से बातचीत क्यों नहीं की ? सोशल मीडिया पर जब जबरदस्त प्रचार हो रहा था को सरकार सचेत क्यों न हुई ? अपराधी व असमाजिक तत्वों की धरपकड़ क्यों नहीं की गई ? पंजाब सरकार द्वारा दिखाई गई सख्ती का ही परिणाम है कि देश में सर्वाधिक दलित जनसंख्या वाले राज्य में इतनी हिंसा नहीं हुई। वर्तमान समय में होने वाले आंदोलन बताते हैं कि इनमें हिंसा सामान्य बात हो चुकी है तो कानून-व्यवस्था बनाए रखने के पुख्ता प्रबंध क्यों नहीं किए गए ? हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन हो या महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में टकराव या राजस्थान में करणी सेना या डेरा सच्चा सौदा के श्रद्धालुओं का उत्पात और अब दलित आंदोलन इसके प्रमाण हैं कि हमने इनसे कुछ नहीं सीखा।

वर्तमान में आंदोलन जहां उपद्रवी और सरकारें लापरवाह हो रही हैं वहीं विपक्ष पूरी तरह गैर-जिम्मेदार हो रहा है। ऊना की घटना हो या फिर रोहित वेमुल्ला को लेकर दलितों का संग्राम, सच यह है कि अब दलित आंदोलन राजनीतिक फसल बिजाई के अवसर बन रहे हैं। ऐसा विपक्ष 'भूतो न भविष्यति', कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी समेत तमाम विपक्षी पार्टियों ने अपने-अपने तरीके से भारत बंद के दौरान हुई हिंसा की इस आंच पर राजनीतिक बिरयानी पकाई। दलित आंदोलन पर राहुल ने ट्वीट कर कहा कि-दलितों को भारतीय समाज के सबसे निचले पायदान पर रखना भाजपा और आरएसएस के डीएनए में है। देश में जब हिंसा हो रही हो तो सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का इस तरह का ट्वीट भट्ठी में अलाव झोंकने का ही काम करेगा। हर दलित आंदोलन के दौरान भाजपा को दलित विरोधी प्रचारित करने की पुरजोर कोशिश तमाम विपक्षी दल कर रहे हैं। दंगा फैलाने के आरोप में यूपी में बसपा के पूर्व विधायक की गिरफ्तारी हो चुकी है। वास्तव में जातिवादी नेता जिग्नेश मेवाणी, हार्दिक पटेल के सहारे कांग्रेस को जब से गुजरात में आंशिक सफलता मिली और यूपी के गोरखपुर व फूलपुर लोकसभा उपचुनाव में जातिवादी दलों सपा व बसपा को सफलता मिली है तब से विपक्ष को लगने लगा है कि वे जातिवादी हैल्पबुक पढ़ कर 2019 में आम चुनाव की परीक्षा उत्तीर्ण कर सकते हैं। इसीको सामने रख कर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर विपक्ष ने भ्रम फैलाने का काम किया। फैसले को न्यायालय की बजाय केंद्र सरकार का बता कर भोले भाले दलितों को गुमराह करने का प्रयास किया। विरोध के लिए ही विरोध करना विपक्ष की आदत बन रही है जो लोकतंत्र के लिए नुक्सानदेह है। बाबा साहिब आंबेडकर अपनी पुस्तक के खण्ड 10 के पृष्ठ 384 पर लिखते हैं 'सही राष्ट्रवाद है, जाति-भावना का परित्याग और यह भावना गहन सांप्रदायिकता का ही रूप है।' इस व्याख्या में हमारे दल राष्ट्रवाद की परिभाषा में कितने फिट बैठते हैं यह उनके आत्मविश्लेषण का समय है।

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