दिलेर समाचार, हसन जमालपुरी: बांग्लादेश की सरकार ने अपने यहां मदरसे के पाठ्यक्रम से ‘जेहाद’ संबंधी अध्याय हटवा दिया है। यह खबर विगत दिनों मेरे पास आयी तो मुझे अच्छा लगा और मैं यह सोचने लगा कि क्या सचमुच में बांग्लादेश बदलने लगा है।
हमारे पड़ोसी बांग्लादेश से आई यह खबर बहुत अच्छी है। इस खबर ने मुझे वाकई में झकझोर का रख दिया है। मैं बांग्लादेश को इस्लाम के पुरातन सिद्धांतों पर अमल करने वाले देश के रूप में जानता था लेकिन इस खबर ने मेरी पुरानी धारणा को धराशायी कर दिया।
मैं समझता हूं इस खबर को सुनकर सभी भारतीय अच्छा महसूस करेंगे। हालांकि भारत में भी इस प्रकार की बात होनी चाहिए और पाकिस्तान से भी इसी प्रकार के खबर की उम्मीद की जाती है लेकिन फिलहाल बांग्लादेश ने बाजी मारी है।
मेरे विचार में इस्लाम को मानने वाले तमाम देशों को इस प्रकार का ही निर्णय लेना चाहिए। इससे इस्लाम को बदनाम करने वालों की बोलती बंद हो जाएगी।
याद रहे बांग्लादेश के नेता मो. मुजीबुल रहमान ने ही सार्क का सिद्धांत दिया था और कहा था कि भारतीय उपमहाद्वीप के देशों को दुनिया के सामने एकजुट होकर खड़ा होना चाहिए। हमें न तो अरब की ओर देखना चाहिए और न ही हमें पश्चिम की ओर रूख करना चाहिए। हम साम्यवादी भी नहीं हैं, इसलिए हमें सोवियत रूस की ओर भी ध्यान देने की जरूरत नहीं है।
रहमान के इसी सिद्धांत ने बाद में सार्क का स्वरूप ग्रहण किया। आज यह बेहद प्रभावशाली क्षेत्राीय संगठन के रूप में उभरकर सामने आया है। हालांकि इस संगठन में आपसी अंतरविरोध भी बहुत हैं लेकिन धीरे-धीरे यह संगठन आपसी समस्याओं को सुलझाने में कारगर साबित होता जा रहा है।
रहमान ने यह भी कहा था कि चाहे हमारा पंथ आपस में भिन्न हो लेकिन हमारी पहचान और संस्कृति एक-दूसरे से मेल खाती हैं इसलिए हमें अपनी ताकत पर भरोसा करना चाहिए। यह सिद्धांत बाद में परिपक्व हुआ और सार्क नामक संगठन सामने आया।
जिस प्रकार बांग्लादेश के सत्ता पर बैठे सियासतदानों ने इस्लाम के हार्डलाइन को छोड़ने की दिशा में पहल की है उसी प्रकार की पहल से पूरे विश्व का इस्लाम बच सकता है। यदि हम ऐसा कहें कि बांग्लादेश ने इस्लाम को बचाने के लिए दुनिया के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है तो उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
बांग्लादेश ने यह कदम कट्टरवाद का मुकाबला करने के लिए किया है। बांग्लादेश में कट्टरवाद का मुकाबला करने की राह में अपनी छाप छोड़ते हुए तथा इस दिशा में एक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए ‘नेशनल कमेटी ऑन मिलिटेंसी रेजिस्टेंस एण्ड प्रीवेन्शन’ के अनुरोध पर ‘बांग्लादेश मदरसा एजुकेशन बोर्ड’ ने पिछले 40 वर्षों से मदरसे के पाठ्यक्रम का हिस्सा रहे ‘जेहाद’ से संबंधित सभी अध्यायों को हटा दिया है।
यह कदम बांग्लादेशी मुस्लिम युवकों में बढ़ रहे कट्टरवाद के चलन को रोकने के लिए बांग्लादेश की रणनीति का एक हिस्सा है। बोर्ड अन्य संबंधित शब्दों, अप्रामाणिक किस्से-कहानियों, व्याख्याओं की भी समीक्षा करने की सोच रहा है, जो इस्लाम को रूढि़वादी व कट्टरपन के स्वरूप में चित्रित करते हैं।
इसी प्रकार की कुछ योजना भारत सरकार को भी करनी चाहिए। यदि ‘जेहाद’ जैसे अध्याय को मदरसों वाले पाठ्यक्रम से हटा दिए जाएं तो इस्लाम के नाम पर जो आतंकवाद फैलाए जाते हैं वह लगभग खत्म हो जाएगा।
कुछ इस्लामिक दर्शन के विद्वानों का मानना है कि जेहाद आंतरिक शुद्धि का उपक्रम है। प्रोफेट मोहम्मद साहब ने साफ शब्दों में जेहाद को परिभाषित किया है। उनका मानना था कि जो मानवता के खिलाफ है उसके खिलाफ जेहाद करना चाहिए। इसकी परिभाषा बाद में बदल दी गयी।
इस्लाम को बदनाम करने वालों ने सर्व प्रथम जेहाद को ही अपने ढंग से परिभाषित किया और मोमिनों को समझाया कि जेहाद अन्य चिंतन के मानने वालों के खिलाफ करने की बात इस्लाम में बताई गयी है। अब इस पचड़े में बांग्लादेश पड़ता ही नहीं। उसने साफ कह दिया कि अब जेहाद की जरूरत ही नहीं है और उससे संबंधित सारे तथ्य पाठ्यक्रम से हटा दिए।
यदि सचमुच में इस्लाम को बचाना है तो हमें बांग्लादेश का अनुसरण करना होगा। उसी के कदम पर चलना होगा और मदरसों के पाठ्यक्रम से उन तमाम मामलों को हटाना होगा जो अन्य चिंतन के खिलाफ इस्लाम को उकसाते हैं।
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