Logo
April 25 2024 04:38 PM

नगर निकाय निर्वाचन में भाजपा की जीत की निहितार्थ

Posted at: Dec 13 , 2017 by Dilersamachar 9717

दिलेर समाचार, राज सक्सेना- यह माना जाता है कि किसी प्रदेश के नगर निकाय निर्वाचन के चुनाव स्थानीय आवश्यकताओं और स्थानीय चेहरों की स्वीकार्यता के आधार पर लड़े जाते हैं। बात किसी हद तक सही भी है इन चुनावों के परिणामों का कोई बहुत असर राष्ट्रीय स्तर पर पड़ता हो, ऐसा देखा नहीं गया है। हाँ, प्रदेश की राजनैतिक स्थिति पर इनका आंशिक प्रभाव जरुर पड़ता है क्योंकि इस चुनाव के विजेता अपने अपने दलों को समर्पित कार्यकताओं की भीड़ और किसी हद तक आर्थिक सहयोग उपलब्ध कराने में जरुर समर्थ होते हैं जो आजकल के चुनावों में बहुत जरूरी आवश्यकताएं मानी जाती हैं किन्तु उ.प्र. में हुए स्थानीय निकाय चुनाव अन्य चुनावों से अलग हट कर अपना स्थान रखते हैं।

स्थानीय चुनावों में किसी भी दल का क्लीन स्वीप हो जाए, यह संभव नहीं होता क्यांेकि ये चुनाव स्थानीय मुद्दों और स्थानीय चेहरों के आधार पर एक छोटे से क्षेत्रा में लड़े जाते हैं। इन चुनावों में प्रत्याशी की छवि, जाति समीकरण और धार्मिक दृष्टिकोण का भी बहुत बड़ा हाथ रहता है, इसलिए इस चुनाव को इस नजर से देखना कि भाजपा क्लीन स्वीप करती, उचित नहीं होगा किन्तु महानगरों और नगरों में उसने इन सारे कारकों को धता बताते हुए अबतक की जो सबसे बड़ी ऐतिहासिक जीत प्राप्त की है वह स्वयं में एक इतिहास है। इन चुनावों में अपने काडर वोट और जातीय समीकरणों और इस समय पूरे देश में उभर कर चल रही दलित भावना के चलते बीएसपी ने कुछ स्थानों पर जरुर भाजपा को टक्कर देने का प्रयास किया है और दूसरे नम्बर पर आई है किन्तु भाजपा और बसपा के वोट प्रतिशत और जीते प्रत्याशियों की संख्या में बहुत बड़ा अंतर स्पष्ट करता है कि वह विधानसभा के सदमे से उबरी तो है किन्तु अभी सीधी खड़ी नहीं हो पाई है।

इन चुनावों में सपा को एकबार फिर बहुत बड़ा चुनावी झटका लगा है और हमेशा जातीय और मुस्लिम समीकरणों के आधार पर चुनाव लड़ने वाली सपा पर इस बार मुस्लिम मतदाताओं ने मुलायम के इस कथन के बाद भी कि, ‘अगर उनका बस चलता तो वे कार सेवकों पर और गोलियाँ चलवाते।’ विश्वास का जोखिम न उठा कर बसपा और एमआईएम की ओर रुख कर लिया है। यह सपा के बड़बोले और अतिविश्वास से ग्रसित नेताओं के लिए एक और बड़ा झटका है जिसे सपा ने जल्दी प्रतिपूरित नहीं किया तो उसके अस्तित्व के लिए एक संकट खड़ा होने की सम्भावना खड़ी हो सकती है। इस चुनाव से सपा के बड़े नेताओं ने दूरी बना कर रखी, यह आश्चर्यजनक है। या तो वे पिछले चुनावों से सकते में हैं या फिर सम्भावित हार से डर गये थे लेकिन यह भी सत्य है कि अगर वे चुनाव में उतरे होते और प्रत्याशियों का चयन सहीसही किया गया होता तो स्थिति कुछ सुधर सकती थी। वाई-एम के भरोसे राजनीति करने वाली सपा को अपने गढ़ों में ही सबसे अधिक झटके लगे हैं। नगर निगमों में शून्य पाने वाली सपा सोलह निगमों में से केवल पांच में ही दूसरे स्थान पर रह सकी है। कन्नौज से अखिलेश तीन बार सांसद रहे हैं और वर्तमान में उनकी पत्नी डिम्पल सांसद हैं। कन्नौज में तीन नगर पालिकाएं और पांच नगर पंचायत हैं। विडम्बना देखिये एक भी निकाय के अध्यक्ष पद पर उनके प्रत्याशी अपना खाता तक नहीं खोल सके। और तो और, फिरोजाबाद से अखिलेश के चाणक्य कहे जाने वाले चाचा रामगोपाल के पुत्रा अक्षय सांसद हैं। वहां भी सपा मुख्य मुकाबले से बाहर ही रही। समय आ गया है कि सपा आत्ममंथन करे और हार की विभीषिका से बाहर निकले।

जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है, इन परिणामों से तो लगता है कि देश के सबसे बड़े प्रदेश जहां से कांग्रेस का ‘राजपरिवार’ आता है, में कांग्रेस अंतिम साँसे गिन रही है। अब समय आ गया है कि राहुल गांधी को गुजरात और दिल्ली पर अधिक ध्यान देने के बजाय उत्तर प्रदेश पर अधिक ध्यान देना चाहिए वरना ‘फिर पछताए होत क्या’ कहावत चरितार्थ होने की सम्भावना हो सकती है। उ.प्र. में कभी देश की सबसे बड़ी पार्टी कही जाने वाली पार्टी पराजय

के दलदल से निकल ही नहीं पा रही है।

इन चुनावों में उसका प्रदर्शन 2012 के निकाय चुनावों से भी खराब रहा है। महापौर के पद पर वह कहीं भी अपना खाता तक नहीं खोल सकी है। पूरे प्रदेश में अध्यक्ष नगर पालिका परिषद के 09 और अध्यक्ष नगर पंचायत के 17 पद उसके खाते में रहे हैं। यह शोचनीय प्रदर्शन है। विडम्बना तो यह है कि अमेठी जो कांग्रेस के भावी अध्यक्ष का चुनावी क्षेत्रा है, से एक भी अध्यक्ष पद कांग्रेस जीतने में असफल रही है। यह निर्वाचन कांग्रेस के लिए अलार्मिंग संदेश देता लगता है कि वह अपनी बात बहादुर की छवि से बाहर निकले। हवाहवाई संगठन के बजाए एक मजबूत संगठन की संरचना करे और अपनी धर्म निरपेक्ष छवि के अनुरूप सामाजिक समीकरणों को साधने पर जोर दे।

निर्विवाद रूप से बसपा ने चुनावी समर में वापसी की है किन्तु यह भी वास्तविकता है कि वह फिर से सर्व समाज की पार्टी के पद से अभी बहुत दूर है। इन चुनावों में राष्ट्रीय स्तर पर चल रही दलित जागृति की लहर ने उसे एक मजबूत नींव दी तो मुस्लिम वोटों ने सपा से अधिक बसपा पर विश्वास कर उसे मत देना उचित समझ कर उसे निर्वाचन की दौड़ में बनाए रखने में मदद की है। इस बार मुस्लिम यादव के स्थान पर निश्चित रूप से मुस्लिम-दलित समीकरण बनता लगा है। इसीलिए बसपा कई मुख्य मुकाबलों में भाजपा से सीधी टक्कर लेती नजर आई है। हालांकि भाजपा से वह हर क्षेत्रा में काफी पीछे रही है किन्तु कुल मिला कर उसे संतोष करना पड़ेगा कि वह दूसरे नम्बर पर आई है। लगभग हर स्थान पर उसने सपा और कांग्रेस को पटखनी दी है। यह सही है कि इस चुनाव के नतीजे बसपा का उत्साह बढ़ाने वाले हैं पर पहले की तरह उसे अति उत्साह के मकड़जाल में नहीं उलझना चाहिए। बड़बोलेपन से उसके नेताओं को बचना चाहिए और ईवीएम में खोट निकालने के प्रयास छोड़ कर फिर सर्वसमाज की पार्टी बनने की कोशिश करनी चाहिए। इसके लिए उसे कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी। 

इसमें कोई शक नही है कि इस चुनाव का सीधा-सीधा सबसे अधिक लाभ योगी आदित्यनाथ को मिला है। अपनी लगन और मेहनत से प्रदेश की राजनीति में अपना स्थान बनाने की कवायद में धीरे-धीरे बढ़ रहे योगी आदित्यनाथ ने इस चुनाव के परिणामों के पश्चात राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में एक लम्बी छलांग लगाई है। प्रदेश में पूरा विधानसभा चुनाव मोदी के नाम पर लड़ा गया था और प्रदेश के मुख्य मंत्राी का पद उन्हें एक ‘सडन गिफ्ट’ के रूप में मिला था। अब मुख्य मंत्राी योगी ने मोदी को इस अप्रत्याशित जीत के माध्यम से एक ‘रिटर्न गिफ्ट’ देकर प्रदेश और स्वयं को उऋण कर लिया है।

यह बिलकुल सही है कि इस विजय का अनुगुंजन 2019 के आगामी चुनाव में शिद्दत से होगा मगर भाजपा को अब अपने खाते में विकास के चौके और छक्के तो लगाने ही होंगे, क्रीज पर भी मजबूती से खड़ा रहना होगा तभी यह विजय सार्थक और समन्वित हो सकेगी। इस अप्रत्याशित विजय से भाजपा को उत्साहित तो होना चाहिए किन्तु मदमस्त नहीं होना चाहिए। उसे याद रखना चाहिए कि महानगरों में तो वह जीएसटी के झटके से उबर गयी मगर मझोले और छोटे नगरों में वह इस जीत को बरकरार नहीं रख सकी है जहां अधिकतर निर्दलीयों ने भाजपा के विजय रथ को रोका है। इन नगरों में निर्दलीय प्रत्याशियों का दबदबा भाजपा को और अधिक मेहनत और छोटे शहरों के और अधिक विकास का संदेश देता है।

कुल मिला कर ये परिणाम भाजपा के लिए राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में उत्साहवर्धक और सकारात्मक दृष्टिकोण से प्रेरित हैं। गुजरात में अहमद पटेल की तकनीकी विजय से गदगद और अतिउत्साहित कांग्रेस के लिए ये नतीजे ‘आशालता पर तुषार पात’ के समान हैं। निश्चित रूप से ये गुजरात के विधानसभा चुनावों को प्रभावित करेंगे उसके परिणामों को भाजपा के पक्ष में मोड़ने के लिए मील का पत्थर साबित होंगे और अगर राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में इन परिणामों के भाजपा के हित में व्यवस्थित तरीके से लाभ उठाये जाएँ तो दूरगामी सकारात्मक परिणाम लाने वाले साबित हो सकते हैं।

ये भी पढ़े: IGNOU में खाली पड़े है पदों के लिए जल्द करें आवेदन

Related Articles

Popular Posts

Photo Gallery

Images for fb1
fb1

STAY CONNECTED