दिलेर समाचार, बड़े-बड़े विद्वान भी आरंभ में ‘अ’ अनार का, ‘आ’ आम का पढ़कर आगे बढ़े और कुशल डॉक्टर, इंजीनियर, वक्ता-अधिवक्ता आदि बने। गुरु की सिखलाई युगों-युगों से सुलभ रही है। ‘आ’ आम का पढ़ाते समय साथ में आम का चित्रा भी बना दिया गया। चित्रा के सहारे अक्षर का ज्ञान होते ही चित्रा को हटा लिया जाता है। उच्च शिक्षा की किताबों में अगर ‘आ’ के आगे आम का चित्रा नहीं बना है तो छात्रा कोई एतराज नहीं करता बल्कि गुरु की विद्या को उत्तम ढंग से अपनाता चला जाता है।
सद्गुरु भी गुरसिख को ब्रह्म विद्या की गूढ़ बातें ऐसे ही सहज भाव से इशारों-इशारों में समझा देता है। पहले सूर्य, चांद, तारे, धरती, अग्नि, पानी जैसे स्थूल चीजों का ज्ञान देता है, फिर वायु, जीव, आकाश जैसी सूक्ष्म चीजों का ज्ञान कराता है। इतना कुछ जब जिज्ञासु समझ जाता है तब तलियों के इशारे से ‘दसवां ब्रह्म इन्हां तो न्यारा एहना विच समाया ए’ का ज्ञान देता है। जब ब्रह्म समझ में आ गया, तब भ्रम भी चला गया और माया तथा ब्रह्म का सम्बन्ध भी समझ में आ गया। फिर यह सम्बन्ध टूट नहंीं जाता बल्कि यथावत कायम रहता है क्योंकि मानव की आत्मा जिस शरीर में रह रही है, यह शरीर भी तो पंच महाभूत तत्वों अर्थात् माया से ही बना हुआ है। फिर इन्सान यही कह उठता है ‘जो इक पल में राम मिला दे ढूंढ़ो वो ब्रह्मज्ञानी’। वो ब्रह्मज्ञानी सद्गुरु है जो जन्मों की अनबूझ पहेली को पल भर में हल कर देता है।
सांसारिकता में फंसे मानव की बात अलग है। वह तो राम को भी खिलौना मान बैठता है ‘लोगन राम खिलौना जाना’। राम ने मानव को बनाया, मानव ने अपने-अपने राम बना लिए। संसार में केवल सद्गुरु ही मानव को इस भ्रम से निकाल कर सच्चाई में स्थित कर सकता है, अन्य कोई नहीं। मीरा को गुरु रविदास से मिलने के पूर्व प्रभु मिलन की अगाध प्यास थी। जब तक सद्गुरु नहीं मिले, प्यास बढ़ती गई, बुझी नहीं। जब सद्गुरु मिले तो मीरा गा उठी- ‘पायो जी मैंने राम रतन धन पायो’ और यह भी कि ‘वस्तु अमोलक दी मेरे सत्गुर करि कृपा अपनायो।’ सद्गुरु और गुरसिख की यह अमर कहानी हर युग में बार-बार दोहराई जाती है। फिर भी यह उसी तरह नित नई है जैसे दिन और रात तो आदि काल से एक-दूसरे का पीछा करते आ रहे हैं लेकिन फिर भी ये नित नए जैसे हैं। गुरु मिलें, तभी जन्म-मरण का जाल कटता है वरना संसार में आना-जाना लगा रहता है। सद्गुरु ही मुक्ति का दाता है। सद्गुरु ही सर्वमंगलकारी है।
समय गया तो वापस नहीं आता इसलिए सद्गुरु काया की क्षणभंगुरता का अहसास कराकर शिष्य को इसके सदुपयोग की शिक्षा देता है कि संसार के काम बाद में भी कर लेना लेकिन पहले अपने मूल की पहचान करो, आत्मज्ञान प्राप्त करो, परमात्म बोध हासिल करो। जो किसी भी प्रकार सद्गुरु के चरणों से लग गया, उसे परमात्मा का बोध तो प्राप्त होता ही है, उसके जीवन में कभी कोई कमी नहीं आती। उसके हर काम में बरकत पहुंचती है। उसके सांसारिक कार्य तो सहज में हो ही जाते हैं, पारलौकिक कार्य भी आसान हो जाते हैं। सद्गुरु का सबसे बड़ा उपकार है, ब्रह्मज्ञान प्रदान करके भक्त को तरह-तरह के भ्रम-भुलेखों से मुक्त करा देना। अज्ञान के अंधेरे में जिस रस्सी को सांप समझ कर इन्सान भयभीत हो रहा था, पल भर में ज्ञान का प्रकाश करके सद्गुरु उस भयानक भय से इन्सान को मुक्त कर देता है।
गुरु की मत गुरमत है, सद्गुरु की मत लेकर गुरसिख गुरमत धारण करता है। गुरमत आते ही अहंकार गायब हो जाता है और प्यार मन में बस जाता है। सद्गुरु सबमें बड़ा दाता है, यह जो चाहे कर सकता है। लूले से बर्तन गढ़वा सकता है, लंगड़े को पर्वत पार करा सकता है। यही कारण है कि असंभव नजर आने वाले कार्य भी गुरसिखों ने सहज ही कर डाले। भगवान राम पुल बनाकर लंका पहुंचे तो हनुमान छलांग लगा कर ही वहां पहुंच गए। गुरसिख के लिए सद्गुरु पिण्ड-प्राण के समान बहुमूल्य है। गुरु की कृपा से प्राप्त सम्मान पर गुरसिख तनिक भी मान नहीं करता। गुरसिख को पता होता है कि गुरु की कृपा से ही सब कुछ मिला है और यह जीवन जीवन कहलाने योग्य हुआ है वरना तो निद्रा, भोजन, भोग भय के स्तर पर वह भी पशुवत ही था। सद्गुरु ने नया जीवन दिया, दानव से मानव और मानव से देवता बनाया। सद्गुरु ने परमात्मा को पहचानने वाली आंख दी, प्रभु का संग दिया जो दिन-रात साथ रहता है। सोते-जागते, चलते-फिरते कभी यह साथ छूटता नहीं। मृत्यु के इस
पार और उस पार यह संग कायम रहता है।
सद्गुरु की कृपा से मन को ऐसी मति मिलती है कि पल-पल, छिन-छिन हरि का सुमिरण होता रहता है। परमात्मा चेते आया तो संसार का चिन्तन समाप्त हो जाता है। सद्गुरु ने जो नाम धन दिया है इससे बड़ा संसार में कोई धन नहीं है। संसार में लोग बड़े-बड़े महल बनाते हैं लेकिन वो इस बात से आगाह नहीं होते कि इतना बड़ा महल तो बना लिया लेकिन इसमें रहना कितने दिन है, इसका तो पता ही नहीं है। तमाम राजा-महाराजा हुए वो भी महल बनाते चले गये, ख्यालों के घोड़े पर सवार हुए तो उतरे ही नहीं, घोड़े दौड़ाते ही चले गये। सद्गुरु आगाह करता है कि मन की ये दौड़, मन की ये चालाकियां काम आने वाली नहीं हैं। काम आयेगा तो केवल परमात्मा का ज्ञान, इसका निरन्तर सुमिरण, सन्तों की सेवा, सन्तों के साथ मिल-बैठकर किया हुआ सत्संग। सद्गुरु मानव मन की भोग वृत्ति को त्याग वृत्ति में बदल कर जीवन आसान कर देता है। लालसाओं, कामनाओं में घिरे मानव को सरलता और सहजता वाला जीवन दे देता है, फिर जीवन की चाल भी सहज बन जाती है। ज्यादा तेज दौड़ने वाला मुंह के बल औंधा गिरता है। गाड़ी तेज चलाई जाए तो संतुलन बिगड़ सकता है, गाड़ी और सवार दोनों को नुकसान पहुंच सकता है। सहजता, सरलता, विशालता देकर सद्गुरु गुरसिख का जीवन आसान बना देता है।
सद्गुरु की संगत से चेहरे पर नूर आता है। मन में दिव्यता आती है। यह दिव्यता निराली होती है, यह सांसारिक सौंदर्य पदार्थों की भांति नुकसान नहीं पहुंचाती बल्कि हमेशा आनन्द ही देती है इसीलिए कहा गया कि सद्गुरु का जो बोल भी आए, सुनना और सुनाना है। सत्संग में सद्गुरु के बोल सुनना और अपने मन, वचन, कर्म से सुनाना सद्गुरु की स्तुति है। यह मन की भटकन को मिटाने वाला है। अगर सारी धरती भी लम्बी उम्र लगाकर घूम लें, तमाम तीर्थ धाम भ्रमण कर आएं, तब भी अनेकों यत्न भी कर लें मन को चैन-सुकून नहीं मिल पाता। संसार में आकर इन्सान को निरंकार से बढ़कर कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। सद्गुरु की कृपा से ब्रह्मज्ञान प्राप्त होते ही मन की तमाम भटकनें समाप्त हो जाती हैं। संसार सागर से पार उतारा हो जाता है।
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