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वरदान और अभिशाप के बीच उलझी भोपाली सियासत

Posted at: May 7 , 2019 by Dilersamachar 9650

डा. अर्पण जैन ‘अविचल’

जब अर्द्धनग्न शरीर पर कोड़े बरसाएं जा रहें हो, लोहे के सरिये से पीटा जा रहा हो, चमड़े के पट्टे स्त्राी की देह नोचते हुए उसे अपराधी सिद्ध करने पर आमादा हांे, गुनाह और बेगुनाही के बीच सच्चाई झूल रही हो, जब स्त्राी की चीखें उसे विवशता की ओर धकेल रही हो, ऐसे समय में कौन होगा जो वरदान देगा? ऐसे समय में अभिशाप का होना लाजमी है और इस सच को निर्भीकता के साथ स्वीकार कर बोल देना ही एक सनातनी साध्वी की पहचान माना जाएगा।

‘सत्य के अनुप्रयोग’ पुस्तक के माध्यम से महात्मा गांधी ने भी सच स्वीकारे, बेबाक बोला, निर्भीकता से लिखा, इसीलिए वो महात्मा गाँधी कहलाए और आज साध्वी प्रज्ञा भी उसी राह पर अपने साथ हुई यातना के दर्द की आह में बोल रही हैं। उनमें सामर्थ्य रहा होगा, तभी तो जानते हुए उन्होंने सच कहा, सच बोला। और रही बात हेमंत करकरे की तो उन्होंने 26 /11 के दौरान अपनी कर्तव्य परायणता साबित करके दुर्दान्त आतंकियों से राष्ट्रवासियों को बचाने का जतन किया और कसाब को पकड़वाया, इससे उनके कई गुनाहों को देश ने यह सोच कर तिलांजलि दे दी कि उन्होंने अंततोगत्वा राष्ट्र के लिए कुछ ऐसा किया जिससे उनकी यह अच्छाई उनके गुनाहों को मिटा गई तो करकरे भी हुतात्मा और शहीद ही माने गए।

आखिर हर व्यक्ति में कुछ न कुछ ऐब होते हैं। किसी के दिख जाते हैं, किसी के उजागर कर दिए जाते हैं और किसी-किसी के ताउम्र दफन हो जाते हैं। करकरे का यह रूप जो साध्वी प्रज्ञा के साथ घटित हुआ, उसे भी स्वीकारना चाहिए। हो सकता है राष्ट्रवासी प्रतिक्रिया न दंे किन्तु गुनाहों का देवता कुछ तो सजा देता ही होगा क्योंकि हम भारतीय हैं और भारत की परंपराएं हमें गुनाहों से डरने के लिए ईश्वरीय सत्ता के भय और कर्म फल की चिंता का मौलिक अधिकार भी देती है। यदि ऐसा न होता तो भारत सवा सौ करोड़ अपराधियों का राष्ट्र बन चुका होता।

कड़वा सच तो यह भी है कि जिसने यातना भोगी होगी, जिसने सहा होगा वही उसकी गवाही देगा। ऐसे समय में मुँह से अभिशाप ही निकला करते हैं। सामने जब यातना का यक्ष मुँह बाए खड़ा होता है तो वरदान के श्वेत कपोत की हिम्मत नहीं होती कि वो कुछ कह दे। ‘शाप’ जैसी सनातनी व्याख्या साधु-साध्वी परंपराओं का अभिन्न अंग है। जब हम आशीर्वाद, वरदान जैसी अवधारणाओं को सहज स्वीकार करते हैं तो हमें अभिशाप जैसी शक्ति को भी स्वीकारना होगा। जैसे दिन को स्वीकार करते हैं तो आप रात के वजूद से कैसे इंकार कर सकते हैं। वरदान के लिए मंदिर-मस्जिद दौड़ते हैं तो अभिशाप भी इसी व्यवस्था का अंग है।

यदि अब भोपाल के सियासी सफर की ओर नजर डालें तो यह विगत 4 दशकों से कांग्रेस का न जीत पाने वाला अभेद्य किला बन चुका है जिसमें सेंध मारने की कांग्रेस की इच्छा कभी पूरी नहीं हो पाई इसलिए इस बार प्रयास के तौर पर दिग्विजयसिंह को मैदान सँभालने के लिए भेज दिया है। दूसरी तरफ दिग्गी के कार्यकाल के प्रभाव के कारण यातना भोगने वाली साध्वी प्रज्ञा को बीजेपी ने उम्मीदवार बना कर मैदानी के साथ-साथ जुबानी जंग को भी हवा दे दी है। वैसे साध्वी के बयानों को देखा जाएं और आकलन किया जाए तो भोपाल को एक ऐसा नेता मिल सकता है जो सत्यनिष्ठ है। जो भोगा वही तो कहा, जो किया, उसे ही तो स्वीकार किया।

खैर, साध्वी प्रज्ञा सियासत की कमजोर और कच्ची खिलाड़ी हैं क्योंकि सियासत में मुँह के शब्दों को चाशनी में लपेट कर मारा जाता है और साध्वी प्रज्ञा उन शब्दों को दो टूक सीधे प्रहारित कर रही हैं। एक तरह से देखा जाए तो लाग-लपेट की बीमारी से दूर एक सत्यनिष्ठ, स्पष्टवादी और ईमानदार नेतृत्व का मिलना भोपाल का सौभाग्य होगा क्योंकि दिग्विजय से कौन अपरिचित है। दस वर्ष सर्वनाश के सबने झेले हैं, हर रात मोमबत्ती और लालटेन के साथ गुजरती हुई हर आँख ने देखी है और घोटाले, चम्मच का चलन किससे अछूता है।

  समझ को विकासशील से विकसित की तरफ आगे बढ़ाना है तो भोपाल को निर्भीकता से उसे चुनना होगा जिसके पास विजन हो, सत्य हो, ईमानदारी हो, परिवारवाद से अछूता हो, भोपाल के समग्र विकास हेतु परियोजना हो, और सियासी दाँवपेंचों की बजाए सीधे संवाद करना जानता हो। यदि कोई इस बात से जनता को डराएं कि हिन्दू संत मुस्लिमों पर अत्याचार करेगा या मुस्लिम व्यक्ति हिन्दुओं की बखिया उखाड़ देगा तो वो व्यक्ति स्वयं अनपढ़ और गंवार है क्योंकि हिन्दुस्तान ने महावीर और गौतम के समकालीन भरत का शासन भी देखा है तो अकबर बादशाह की बादशाहत भी।

वर्तमान समय में भारत के नवनिर्माण के लिए मतदाताओं को जातिगत समीकरणों से परे एक विकसित और परिपक्व सोच के साथ राष्ट्र के लिए आगे आना होगा। भोपाल की सियासत का एक अध्याय यह भी है कि यहाँ जुमलेबाजी नहीं बल्कि ठोस परियोजनाओं ने ही कार्य किया है। शिक्षा के व्याकरण से देखें तो भोपाल का मतदाता शिक्षित है। नए भोपाल में पढ़े-लिखे मतदाताओं का हस्तक्षेप है। वैसे भी भोपाल को ‘बाबू सिटी’ कहा जाता है, मतलब अधिकारीवर्ग की बहुलता और शिक्षा के सुव्यवस्थित आवरण के मद्देनजर जागरूकता का प्रभाव है। इसीलिए वरदान और अभिशाप के बीच सियासत को उलझा कर मतदाताओं को गुमराह करने वालों से भोपाल सावधान रहें और अपना सत्यनिष्ठ नेता चुने। 

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