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यूं कीजिए प्रसव-पीड़ा को कम

Posted at: Feb 24 , 2018 by Dilersamachar 10693

पूनम दिनकर

दिलेर समाचार, गर्भावस्था का समय नारियों के लिए एक परीक्षा की घड़ी होती है क्योंकि इस समय में थोड़ी-सी भी लापरवाही मां तथा उदरस्थ शिशु दोनों के लिए ही घातक सिद्ध हो सकती है। देश में लाखों गर्भवती महिलाएं अज्ञानता के कारण मौत के मुंह में चली जाया करती हैं।

नारी को कुदरत ने प्रसव पीड़ा झेलने तथा अपने उदर में शिशु को पालने की अद्भुत शक्ति प्रदान की है। प्रसव के समय पीड़ा को झेलना नारी की स्थिति है। कुछ ऐसे भी उपाय हैं जिन्हें अपना कर प्रसव पीड़ा को आसान किया जा सकता है तथा सुख-पूर्वक संतान को जन्म दिया जा सकता है।

 प्रसवकाल से पूर्व के समय में पति को प्यार और विश्वास के साथ पत्नी का साहस बढ़ाना चाहिए। परिवार के सभी सदस्यों को चाहिए कि गर्भिणी के साथ अपनत्व के भाव को प्रदर्शित करते रहें ताकि उसमें आत्मबल की जागृति हो। गर्भावस्था एवं प्रसवकाल के दौरान पति का सहयोग काफी महत्त्व रखता है। प्रसव काल में गर्भवती को निडर और खुश रहना चाहिए।

 गर्भावस्था में संतुलित एवं पौष्टिक आहार-विहार, दिनचर्या और व्यक्तिगत स्वास्थ्य की ओर गर्भिणी को पूरा ध्यान देना चाहिए।

गर्भिणी को प्रतिमाह चिकित्सक से अपने स्वास्थ्य एवं दशा की जांच करवाते रहनी चाहिए।

 गर्भवती को प्रतिदिन सुबह उठकर गर्म पानी पीना चाहिए। दिन में अनेक बार नींबू-पानी का सेवन अवश्य ही करते रहना चाहिए।

बच्चे के जन्म से पहले मां को प्रसव पीड़ा होती है। दरअसल जब बच्चा गर्भ में पूर्ण विकसित हो जाता है तो मां का शरीर उसे बाहर धकेलने लगता है और इस प्रक्रिया में दर्द होता है। यही प्रक्रिया प्रसव-पीड़ा कहलाती है। दर्द आरम्भ होने पर शुरू-शुरू में हर दस मिनट के अंतराल में उठता है तथा प्रत्येक दर्द 30 से 60 सेकेण्ड का होता है। अगला दर्द उठने से पहले ही महिला को चित लेटकर आराम करना चाहिए तथा दोनों पैर एक साथ उठाकर गहरी सांस ले लेनी चाहिए। फिर पैर नीचे लाते हुए सांस निकालें। इस क्रिया को दो-तीन बार करना चाहिए।

गर्भ में बच्चा और डिम्ब बीजासन गर्भाशय के भीतर पानी की एक थैली में रहते हैं। इस समय बच्चा अपनी नाभि में लगी नाल से डिम्ब बीजासन से जुड़ा रहता है। जब बच्चा बाहर आने को होता है तब गर्भाशय खुलता है और स्त्राी को दर्द तेज हो जाता है। दर्द रूक-रूक कर होता है और प्रत्येक दर्द के साथ स्त्राी के गर्भाशय के ऊपरी भाग में कठोरता-सी मालूम पड़ती है। जब गर्भाशय काफी खुल जाता है तो योनि से रक्त मिश्रित लेसदार द्रव्य निकलने लगता है। इस समय गर्भिणी को मुंह बंद करके नाक से लम्बी-लम्बी सांसें लेनी चाहिए।

्र अगर दर्द पिछले हिस्से से उठकर पेट के अगले हिस्से में फैलता है और नियमित रूप से कुछ समय के अंतर से होता है तथा दर्द के समय पेट सख्त हो जाता है तो यह स्थिति प्रसव का समय नजदीक होने का संकेत देती है।

प्रसव के समय गर्भिणी का सिर ऊंचे तकिए पर होना चाहिए तथा पैर का भाग समतल से कुछ नीचे होना चाहिए। इससे प्रसव के समय उठने वाला दर्द कुछ कम हो जाता है।

प्रसवकाल में महिला ढंग से गहरी सांस लेती रहे। इससे उसकी मांसपेशियों को अधिक बल मिलता है और थकावट महसूस नहीं होती। दर्दों के बीच विश्राम काल में गर्भवती को सुस्ताना चाहिए ताकि नई स्फूर्ति के साथ वह आगामी दर्द के समय जोर लगाकर मांसपेशियों के माध्यम से बच्चे को आगे धकेलने में सहयोग दे सके।

घुटने और पुट्ठों के जोड़ों को ढीले करने तथा पांवों की पिंडलियां मजबूत करने के लिए गहरी सांस लेकर पंजों के बल खड़ी हो जाएं। फिर घुटने को आजू-बाजू रखती हुई धीरे-धीरे बैठकर दोनों हथेलियों को घुटनों पर रख लें। प्रसवकाल के लिए यह व्यायाम उपयुक्त होता है क्योंकि इस अवस्था में कमर की हड्डी का पैल्विस भाग अधिक फैल जाता है और बच्चे को निकलने के लिए अधिक रास्ता मिल जाता है।

घबराहट और चिल्लाने से दर्द बढ़ता है और प्रसव देर से होता है। अतएव प्रसव के समय गर्भिणी को हिम्मत एवं अपने ऊपर नियंत्राण रखना चाहिए।

 अगर गर्भवती बच्चे के जन्म की खुशी के प्रति उत्सुक हो और जन्म देने की क्रिया के प्रति भयभीत न हो तो उसे प्रसव के दौरान पीड़ा कम महसूस होगी। 

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