चेतन चौहान
आज समूचा विश्व ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवर्तन से ऐसा जूझ रहा है कि उसका सांस लेना भी दूभर हो गया है। प्रकृति भी विरोधाभासी परिस्थितियों से संघर्ष कर रही है। आज न केवल मनुष्य बल्कि पशु-पक्षी भी प्रदूषित सांस लेकर असमय मौत का शिकार हो रहे हैं। परिवर्तन के इस दौर में प्रकृति का अंधाधुंध दोहन व विनाश से स्थितियां दिन ब दिन बदतर हो रही है, तिस पर भी मानव इन विषम स्थिति पर तरस न खाते हुए मूक बना बैठा है।
धरती का स्वास्थ्य बिगड़ता ही जा रहा है जिससे वायुमंडल में उपस्थित आक्सीजन भी अब तो पूरी तरह से जहरीली हो गई है। प्रदूषण की समस्या से न केवल शहर बल्कि गांव भी पूरी तरह से प्रभावित हो रहे हैं। वनों की बेहताशा कटाई व खनन ने पृथ्वी को पूरी तरह से झकझोर कर रख दिया है। पृथ्वी के वायुमंडल की ओजोन परत तो अब छिन्न भिन्न होकर रह गई है। औद्योगीकरण के बढ़ते बड़े बड़े शहर अब हम तोड़ते नजर आ रहे हैं।
मनुष्यों द्वारा प्रकृति से बढ़ता खिलवाड़ शहरी सीमाओं को लांघ चुका है। वायु की गुणवत्ता में निरंतर गिरावट से प्रदूषण का स्तर सन 2007 में 56 प्रतिशत से बढ़कर 2017 में 79 प्रतिशत तक बढ़ गया है। जिसके चलते महानगर में रहने वाले इंसानों की हालत और भी दयनीय हो गई है। गुणवत्ता की दृष्टि से देखा जाए तो अच्छी गुणवत्ता वाले शहरों का औसत घटकर महज 2 प्रतिशत रह गया है। आज देश में विकासशील होने का दंभ तो भरा जा रहा है लेकिन भारत में 78 प्रतिशत शहर प्रदूषण मानकों पर खरे नहीं उतरे हैं। नाइट्रोजन आक्साइड का बढ़ता खतरा ओजोन परत को लगभग लील चुका है।
नये नये विकसित होते शहरों का तो और भी बुरा हाल है जो विकसित होने से पहले ही दम तोड़ रहे हैं। वायु प्रदूषण के चौतरफा हमले से जनजीवन इस कदर प्रभावित हो रहा है कि मानों हमें प्रदूषण संबंधी भाषा ही समझ में नहीं आ रही है। जीवन जीने को लालायित मनुष्य ने प्रकृति को इस तरह जकड़ लिया है कि मानों आज वह इसकी गुलाम होकर रह गई है। वायु प्रदूषण के स्तर को रोकने की आम कोेशिशों और प्रयासों को धक्का लग चुका है। प्रकृति से जुड़े बड़े-बड़े पर्यावरणविद भी अपने चारों ओर हो रहे विनाशों को रोकने में असमर्थ हो चुके हैं। सरकारी प्रयास पहले की तुलना में कहीं ज्यादा प्रभावी भले ही हो रहे हैं लेकिन सत्त प्रयासों को धक्का उस वक्त ज्यादा लगता है जब इसके प्रति ईमानदारी का भाव ओझल हो जाता है। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। आज यह गंभीर चिंतन का विषय है।
जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरे व उसके दुष्परिणामों को रोकने के लिए विश्वभर के वैज्ञानिक व नेता समय समय पर बैठकें आयोजित करते हैं। नये नये तथ्यों पर विश्लेषण होते हैं लेकिन प्रश्न हर बार गर्भ में ही रह जाता है कि आखिर ये कदम प्रभावी क्यों नहीं हो पा रहे हैं। पर्यावरण प्रदूषण का खतरा आमजन व प्रकृति के साये में जीने वालों के लिए प्रेत बन कर मंडरा रहा है। संकट सिर पर आ पहंुचा है जो हमारी आने वाली पी़िढ़यों को भी प्रभावित करेगा लेकिन प्रकृति के प्रति हमारी जिम्मेदारानी नियति व सोच में कहीं खोट इस बात को और भी पुख्ता कर देता है कि हम चाह कर भी पर्यावरण के प्रति सचेत नहीं होना चाहते हैं।
बढ़ते औद्योगिक उत्पादन व जनसंख्या का फैलाव हमारे जीवन को प्रभावित कर रहा है, यह सोच वैज्ञानिकों व पर्यावरण रक्षकों के लिए मुद्दा हो सकती है लेकिन आमजन की सोच भी इसके इर्द गिर्द रहेगी, तभी सही मायने में इस भय से उबरा जा सकेगा। पर्यावरण प्रदूषण के प्रति जागरूकता बढ़ाने वाले प्रायोगिक कदमों की आवश्यकता है। मात्रा रैलियां निकालने व भाषणों से समस्या का हल नहीं निकलेगा। ‘स्वच्छ भारत’ अभियान से लोगों को जुड़ने का अवसर अवश्य मिला है लेकिन इसके लक्ष्यों को प्राप्त करना अब भी दूर की कौड़ी है।
यद्यपि प्रदूषण की समस्या विश्वव्यापी है तथापि उसे रोकने के कारगर उपाय ईजाद किए जाएं व देश का हर नागरिक इसे प्राथमिकता के तौर पर लेकर इसमें सहभागिता निभाए। आज हम सभी प्रकार के प्रदूषणों से अवगत हैं लेकिन किसी एक भी प्रदूषण से अपने आपको मुक्त नहीं कर पाए हैं। पर्यावरण प्रदूषण की विभीषिका के कारण व मानव द्वारा विकास के नाम पर हुई प्रगति से न जाने कितने ही पक्षियों और पशुओं की प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं जो प्रकृति के संवर्द्धन और स्वच्छता में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहे थे।
प्रकृति ने मानव जीवन सहेजने के लिए सब कुछ दिया लेकिन मानव जाति ने अपनी स्वार्थ लोलुपता के अधीन होकर जंगलों, नदियों व प्राकृतिक óोतों का इस प्रकार हनन किया कि आज बड़े-बड़े शहर व गांव बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहे हैं। तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए ही होगा, यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। समय अब भी है। हम प्रकृति के प्रति संवेदनशील बन कर प्रदूषण के खतरे को काफी हद तक कम कर सकते है। आवश्यकता है ईमानदारी व सतत प्रयास की।
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