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बढ़ता जल संकट और ‘राखुंडा’

Posted at: Jul 9 , 2019 by Dilersamachar 10001

राकेश सैन

‘राखुंडा नई पीढ़ी के लिए शायद नया शब्द हो परंतु दक्षिणी पंजाब, हरियाणा व राजस्थान में दो दशक पहले तक यह जीवन का हिस्सा था।  ‘राख‘ और ‘कुंड‘ शब्दों की संधि से बना ‘राखकुंड‘ शब्द घिस-घिस कर ‘राखुंडा‘ बना होगा शायद। घर में बर्तन-कासन मांजने वाले स्थान था राखुंडा, जहां जरुरत अनुसार गड्ढे या बर्तन में राख अथवा मिट्टी रखी जाती। भांडे मांजने की युगों से चली आ रही हमारी प्रणाली थी ‘राखुंडा‘ जिसे हर प्रांत में अलग अलग नाम मिला हुआ था।

बहुत आसान व सस्ता था बर्तन मांजना। पहली बात तो कभी जूठा छोड़ा नहीं जाता था और अगर किसी बर्तन में जूठन मिल भी जाती तो एक बर्तन में एकत्रित कर लिया जाता जो बाद में जानवरों को दे दिया जाता। फिर बर्तन में राख डाल कर रगड़ाई होती और बाद में साफ कपड़े से उसे पोंछा जाता। बर्तन चमचमाने लगते, पूरे घर के कासन मंज जाते परंतु मजाल है कि पानी की एक बूंद की भी जरूरत पड़े।

बर्तन आज भी साफ होते हैं परंतु सिंक पर। जूठे बर्तनों में पानी भर कर पहले भिगोया जाता है और उसके बाद धोया। बाद में किसी डिटर्जेंट पाउडर या बर्तन सोप के साथ स्क्रबर की सहायता से बर्तनों की रगड़ाई होती है और फिर से धुलाई। शिंक के सिर पर लगी टोटियां पानी उगलती हैं तो पता ही नहीं चलता कि कितनी मात्रा में जल देवता स्वर्गलोक से उतर कर गटरासन पर विराजमान हो जाते हैं। आज जब देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में जल संकट दानव रूप ले चुका है तो ‘राखुंडे‘ की अनायास ही याद हो आई।

देश में जलसंकट की बानगी देखिए, चेन्नई में जल संकट के कारण कई बड़ी कंपनियों ने अपने कर्मचारियों को कहा है कि वह दफ्तर का कार्य घर से ही करें ताकि पानी की खपत कम की जा सके। संगापेरुमल इलाके की कुछ कंपनियों ने तो शौचालयों में ताला लगाना शुरू कर दिया है। अगर किसी कंपनी के दफ्तर में एक तल पर दस शौचालय हैं तो उनमें से आठ को बंद कर दिया गया है। राजस्थान में कई जगहों पर लोगों ने पानी की टंकियों को ताले लगाने शुरू कर दिए हैं। पानी बचाने के लिए कई राज्य सरकारों ने होटल स्वामियों से अपने यहां प्लेटों की जगह पत्तलों का इस्तेमाल करने को कहा है ताकि इससे बर्तन धोने का पानी बचाया जा सकेगा।

पिछले दिनों हरियाणा के मुख्यमंत्राी मनोहर लाल खट्टर ने मीडिया से बातचीत करते हुए बताया था कि राज्य में 75 प्रतिशत भूजल की खपत हो चुकी है। 22 जिलों में 10 जिलों का जमीन भू-जल स्तर बद से बदतर होता जा रहा है। पंजाब में भी धरती के नीचे का पानी खतरनाक स्तर पर घट रहा है। पांच नदियों की भूमि पंजाब में हर साल भूजल दो से तीन फुट तक गिर रहा है। आज हालात ये हैं कि राज्य के 141 में से 107 खण्ड डार्क जोन में हैं। एक दर्जन के करीब क्रिटिकल डार्क जोन में चले गए हैं। क्रिटिकल डार्क जोन में नया ट्यूबवैल लगाने पर जहां केंद्रीय भूजल बोर्ड ने पाबंदी लगा दी है। कमोबेश यही हालत देश के लगभग हर प्रांत की बनी हुई है।

मौसम में आए परिवर्तन के कारण तापमान 45 से 50 डिग्री तक पहुंच गया है। बढ़ता तापमान और कम होता जल स्तर अशुभ संकेत है। 18, मई 2019 को केंद्र सरकार की ओर से जारी परामर्श में साफ कहा गया है कि पानी का प्रयोग केवल पीने के लिए ही करें। केंद्रीय जल आयोग देश के इक्यानवें मुख्य जलाशयों में पानी की मौजूदगी और उसके भंडारण की निगरानी करता है, की ताजा रिपोर्ट के अनुसार इनमें पानी का कुल भंडारण घटकर 35.99 अरब घनमीटर रह गया है। यह उपलब्धता इन इक्यानवें मुख्य जलाशयों की कुल क्षमता का केवल बाइस  प्रतिशत है। इससे साफ संकेत है कि देश पानी का संकट गहराने लगा है।

आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 1947 में भारत के प्रत्येक नागरिक के लिए सालाना 6042 घनमीटर पानी उपलब्ध था लेकिन 2011 में यह 1545 घनमीटर रह गया। शहरी विकास मंत्रालय ने लोकसभा में पैंतीस प्रमुख शहरों में जलापूर्ति को लेकर आंकड़ा पेश किया था। इनमें तीस शहरों को उनकी जरूरत से कम पानी मिलने की खबर भी सामने आती है। शहरों का एक बड़ा हिस्सा भूजल का इस्तेमाल कर रहा है। नतीजतन, भूजल का स्तर तेजी से गिर रहा है। भारतीय मानक ब्यूरो के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन 150 से 200 लीटर पानी की आवश्यकता रहती है जो उपलब्ध नहीं हो पा रहा। अगर जल को न संभाला गया तो प्राणीमात्रा का जीना मुश्किल हो जाएगा।

जलसंकट की जननी है हमारी बदलती जीवन शैली, वह प्रणाली जिसमें विलासिता, सुविधाभोग, निर्दयता, जिम्मेवारी के एहसास की कमी के तत्वों की प्रधानता है। जल जिसे हमारे ऋषियों ने देवता माना और नानक ने पिता के समान आदरणीय बताया, आज हमारे लिए केवल और केवल खरीद फरोख्त व दुरुपयोग की वस्तु मात्रा बन गई है। सच है कि आज का मानव प्रकृति के साथ कुछ-कुछ दानव जैसा व्यवहार करने लगा है। जल, जमीन, जंगल और जानवरों का हो रहा विनाश इसी ओर इशारा करता है कि हम वो नहीं रहे जिसके लिए जाने जाते थे। शेव या पेस्ट करते हुए वाशबेसिन का नल चलता रहना, टंकियों का ओवरफ्लो, पाइपों से पानी का बहते रहना, बहती टूटियों पर ध्यान न देना आदि अनेक इसी दानवी व्यवहार के उदाहरण हैं जो सामान्य रूप से हमारे घरों में मिल जाते हैं।  कल्पना करें जिस दिन पानी हमारे बीच नहीं होगा या बहुत कम मात्रा में होगा तो हमारा जीवन किस तरह चल पाएगा।

प्रधानमंत्राी नरेंद्र मोदी ने हर घर को शौचालय की तर्ज पर हर घर को नल का पानी देने का संकल्प जताया है। लोगों में जल के प्रति जागरुकता फैलाने व जलसंकट के हल के लिए जल शक्ति मंत्रालय भी बनाया गया है परंतु जनता के सहयोग के बिना किसी भी सरकार की योजना सफल होने वाली नहीं है। स्वच्छ भारत अभियान शायद लोगों के सहयोग के बिना संभव न हो पाता। ‘राखुंडा‘ और ‘शिंक‘ दो वस्तुएं नहीं बल्कि प्रतीक हैं संयमित जीवन और अंध उपभोक्तावाद के। संयम व मितव्ययता हमारी संस्कृति, युगों प्रमाणित जीवन शैली है जो प्रकृति में ईश्वर का वास देखती है। प्राकृतिक संसाधनों का जरुरत अनुसार ही प्रयोग करना हमारे पूर्वजों ने हमें सिखाया है।

बदली परिस्थितियों के चलते चाहे ‘राखुंडा‘ पूरी तरह नहीं अपनाया जा सकता तो कम से कम सिंक को तो कुछ न कुछ ‘राखुंडा‘ जैसा बना ही सकते हैं। कुछ दिन पहले मेरी पत्नी के बीमार होने के चलते मुझे घर के बर्तन मांजने का सुअवसर मिला तो मैंने आधी-पौनी बाल्टी में सभी बर्तन साफ कर लिए और उस पानी को क्यारी में डाल दिया। बनिया बुद्धि से हिसाब लगाएं तो भांडे के भांडे मंज गए और पौधों की प्यास भी बुझ गई। फिर बीस-पच्चीस बरस बाद घर आंगन में ‘राखुंडा‘ हंसता खिलखिलाता दिखाई दिया तो किसी बिछड़े हुए स्वजन की स्मृति ताजा हो उठी।

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