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भारत में विकट जल समस्या और उसका निदान

Posted at: Jul 21 , 2019 by Dilersamachar 11359

राज सक्सेना

हर एक नागरिक जानता है कि जीवन के आधारभूत पंचतत्वों में से एक जल हमारे जीवन का मुख्य आधार है। जल के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। शायद इसीलिये कवि रहीम ने कहा है- ‘रहिमन पानी राखिये बिना पानी सब सून। पानी गये न ऊबरै मोती मानुष चून’। यदि जल न होता तो सृष्टि का निर्माण ही सम्भव न हो पाता। शायद यही कारण है कि यह एक ऐसा प्राकृतिक संसाधन है जिसका कोई मोल नहीं है। जीवन के लिये जल की महत्ता को इसी से समझा जा सकता है कि बड़ी-बड़ी सभ्यताएँ नदियों के तट पर ही पनपी और विकसित हुई। अधिकांश प्राचीन नगर नदियों के तट पर ही बसे। जल की उपादेयता को ध्यान में रखकर यह अत्यन्त आवश्यक है कि हम न सिर्फ जल का संरक्षण करें बल्कि उसे प्रदूषित होने से भी बचायें। इस संबंध में भारत में जल संरक्षण की एक समृद्ध प्राचीन परम्परा रही है।

देश के हर जागरूक नागरिक के संज्ञान में आ चुका है कि देश का भूजल स्तर अब अधिक दिनों तक देश की पेयजल समस्या का निराकरण करने में असमर्थ होता जा रहा है किन्तु इस समस्या को वह सरकारों और सरकारी मशीनरी पर छोड़कर स्वयं अभी भी पेयजल को बरबाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। सरकारें और सरकारी अधिकारी भी अपने समय में कोई समस्या न हो, इसलिए बेफिक्र होकर लगातार नलकूप पर नलकूप खोदते और उनकी गहराई बढ़ाकर उपलब्ध जल स्तर को और खतरनाक स्तर तक लेते चले जा रहे हैं।

देश में नलकूपों की संख्या बढ़ने का अर्थ है भूमिगत पानी का अधिक उपयोग। जो हाल दूसरे सभी संसाधनों के शोषण का है, वही पानी का भी है। उसका बेहिसाब दुरुपयोग होता है। इस कारण से भी पानी की सतह नीची और नीची होती जा रही है। प्राकृतिक तौर पर जितना पानी भूमिगत भंडार में भरता है, उससे ज्यादा पानी नलकूप बाहर खींच लाते हैं। इसका सीधा अर्थ यह है कि यह कीमती भंडार लगातार घटता जा रहा है। इस घटे स्तर की मात्रा के बारे में कोई अधिकृत तथ्य प्राप्त नहीं हैं।

योजना आयोग के एक सलाहकार नलिनीधर जयाल ने कहा था, ‘सिंचाई के लिए भूमिगत पानी का अति उपयोग एक अभिशाप है’। ज्यादा पानी की जरूरत वाली फसलों के भूमिगत पानी के अति-शोषण का परिणाम महाराष्ट्र में दिखाई देने लगा है। वहां पीने के पानी की और खाद्यान्न की कमी लगातार पड़ रही है क्योंकि ज्यादातर पानी तो गन्ने की नकदी फसल पी जाती है। महाराष्ट्र में पहले बारिश के पानी से जहां मोटा अनाज पैदा किया जाता था, वहां ज्यादा पानी मांगने वाली गन्ने जैसी फसलों का चलन बढ़ने से भूमिगत पानी का घोर संकट बढ़ गया है।

भूजल और ऊपरी पानी के अनियमित प्रबंध का ही यह नतीजा है कि आज गांवों की तो बात छोडि़ए, छोटे-बड़े शहरों में व राजधानियों तक में पीने के पानी का संकट बढ़ता ही जा रहा है। हैदराबाद के लिए रेलगाड़ी से पानी पहुंचाए जाने की नौबत आती रहती है। मद्रास, बंगलूर भी छटपटा रहे हैं। जिस शहर के पास जितनी राजनैतिक ताकत है, वह उतनी ही दूरी से किसी और का पेयजल छीन कर अपने यहां ले आता है। दिल्ली यमुना का पानी तो पी ही लेती है। इसके लिए अब गंगा का पानी लाया जा रहा है।

भूमिगत पानी के अति उपयोग का परिणाम यह भी हो सकता है कि उसमें, विशेषकर समुद्र तट के क्षेत्रों में खारा पानी मिल जाए। इससे फिर रहा-सहा पानी भी पीने या सिंचाई के लायक नहीं रह पाएगा। 50 के दशक में गुजरात के सौराष्ट्र के दक्षिणी तटवर्ती हिस्सों के किसानों ने भूमिगत पानी से साग-सब्जी और मीठे नींबू की सघन खेती करना शुरू किया था। 1970 तक समुद्र का खारा पानी भूमिगत स्रोतों में घुस आया और खेती की पैदावार एकदम घटने लगी। इस तरह यह प्रभावित क्षेत्रा 1971 से 1977 के बीच 35,000 हेक्टेयर से एक लाख हेक्टेयर हो गया। भूजल के मीठे स्रोतों में खारेपन की यह समस्या सूरत और अन्य कई समुद्र के तटवर्ती क्षेत्रों में भी दिखाई देने लगी है। 

जनसंख्या के दृष्टिकोण से विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश भारत जल संकट से जूझ रहा है। यहाँ जल संकट की समस्या विकराल हो चुकी है। न सिर्फ शहरी क्षेत्रों में बल्कि ग्रामीण अंचलों में भी जल संकट बढ़ा है। वर्तमान में बीस करोड़ भारतीयों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं हो पाता है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों में जहाँ पानी की कमी बढ़ी है, वहीं राज्यों के मध्य पानी से जुड़े विवाद भी गहराए हैं। भूगर्भीय जल का अत्यधिक दोहन होने के कारण धरती की कोख सूख रही है। जहाँ मीठे पानी का प्रतिशत कम हुआ है वहीं जल की लवणीयता बढ़ने से भी समस्या विकट हुई है।

भूगर्भीय जल का अनियंत्रित दोहन तथा इस पर बढ़ती हमारी निर्भरता पारम्परिक जलस्रोतों व जल तकनीकों की उपेक्षा तथा जल संरक्षण और प्रबन्ध की उन्नत व उपयोगी तकनीकों का अभाव, जल शिक्षा का अभाव, भारतीय संविधान में जल के मुद्दे का राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्रा में रखा जाना, निवेश की कमी तथा सुचिंतित योजनाओं का अभाव आदि ऐसे अनेक कारण हैं जिसकी वजह से भारत में जल संकट बढ़ा है। भारत में जनसंख्या विस्फोट ने भी अनेक समस्याएँ उत्पन्न की हैं, इसने पानी की कमी को भी बढ़ाया है। आंकड़े बताते हैं कि स्वतंत्राता के बाद प्रतिव्यक्ति पानी की उपलब्धता में 60 प्रतिशत की कमी आयी है।

जल जीवन का आधार है और यदि हमें जीवन को बचाना है तो जल संरक्षण और संचय के उपाय करने ही होंगे। जल की उपलब्धता घट रही है और उपयोग की मारामारी बढ़ रही है। ऐसे में संकट का सही समाधान खोजना प्रत्येक नागरिक का दायित्व बनता है। यही हमारी राष्ट्रीय जिम्मेदारी भी बनती है। जल के स्रोत सीमित हैं। नये स्रोत हैं नहीं, ऐसे में जलस्रोतों को संरक्षित रखकर एवं जल का संचय कर हम जल संकट का मुकाबला कर सकते हैं। इसके लिये हमें अपनी भोगवादी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना पड़ेगा और जल के उपयोग में मितव्ययी बनना पड़ेगा। जलीय कुप्रबंधन को दूर करके भी हम इस समस्या से निपट सकते हैं। यदि वर्षाजल का समुचित संग्रह हो सके और जल की प्रत्येक बूँद को अनमोल मानकर उसका संरक्षण किया जाये तो कोई कारण नहीं है कि वैश्विक जल संकट का समाधान न प्राप्त किया जा सके। जल के संकट से निपटने के लिये कुछ महत्त्वपूर्ण सुझाव विचारणीय हैं।

जल संकट से निपटने के लिये हमें वर्षाजल भण्डारण पर विशेष ध्यान देना होगा। वाष्पन या प्रवाहन द्वारा जल खत्म होने से पूर्व सतह या उपसतह पर इसका संग्रह करने की तकनीक को वर्षाजल भण्डारण कहते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि तकनीक को न सिर्फ अधिकाधिक विकसित किया जाय बल्कि ज्यादा से ज्यादा अपनाया भी जाय। यह एक ऐसी आसान विधि है जिसमें न तो अतिरिक्त जगह की जरूरत होती है और न ही आबादी विस्थापन की। इससे मिट्टी का कटाव भी रुक जाता है तथा पर्यावरण भी संतुलित रहता है। बंद एवं बेकार पड़े कुँओं, पुनर्भरण पिट, पुनर्भरण खाई तथा पुनर्भरण शाफ्ट आदि तरीकों से वर्षाजल का बेहतर संचय कर हम पानी की समस्या से उबर सकते हैं।

विभिन्न फसलों के लिये पानी की कम खपत वाले तथा अधिक पैदावार वाले बीजों के लिये अनुसंधान को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो, ऐसे खाद्य उत्पादों का प्रयोग करना चाहिए जिसमें पानी का कम प्रयोग होता है। खाद्य पदार्थों की अनावश्यक बर्बादी में कमी लाना भी आवश्यक है। विश्व में उत्पादित होने वाला लगभग 30 प्रतिशत खाना खाया नहीं जाता है और यह बेकार हो जाता है। इस प्रकार इसके उत्पादन में प्रयुक्त हुआ पानी भी व्यर्थ चला जाता है। प्रत्येक फसल के लिये अधिकतम और निम्नतम जल की आवश्यकता का निर्धारण किया जाना चाहिए और तद्नुसार सिंचाई की योजना बनानी चाहिए। सिंचाई कार्यों के लिये स्प्रिंकलर और ड्रिप सिंचाई जैसे पानी की कम खपत वाली प्रौद्योगिकियों को प्रोत्साहित करना चाहिए। कृषि में औसत व द्वितीयक गुणवत्ता वाले पानी के प्रयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, विशेष रूप से पानी के अभाव वाले क्षेत्रों में।

जल प्रबंधन और जल संरक्षण की दिशा में जन जागरुकता को बढ़ाने के प्रयास हों। जल प्रशिक्षण को बढ़ावा दिया जाय तथा संकट से निपटने के लिये इनकी सेवाएँ ली जाय। वर्षाजल प्रबंधन और मानसून प्रबंधन को बढ़ावा दिया जाय और इससे जुड़े शोध कार्यों को प्रोत्साहित किया जाय। जल शिक्षा को अनिवार्य रूप से पाठ्यक्रम में जगह दी जाय। औद्योगिक विकास और व्यावहारिक गतिविधियों की आड़ में जल के अंधाधुंध दोहन को रोकने के लिये तथा इस प्रकार से होने वाले जल प्रदूषण को रोकने के लिये कड़े व पारदर्शी कानून बनाये जाएँ। जल संरक्षण के लिये पर्यावरण संरक्षण जरूरी है। जब पर्यावरण बचेगा तभी जल बचेगा।

पर्यावरण असंतुलन भी जल संकट का एक बड़ा कारण है। पर्यावरण संरक्षण के लिये हमें वानिकी को नष्ट होने से बचाना होगा। हमें ऐसी विधियाँ और तकनीकें विकसित करनी होगी जिनसे लवणीय और खारे पानी को मीठा बनाकर उपयोग में लाया जा सके। इसके लिये हमें विशेष रूप से तैयार किये गये वाटर प्लांटों को स्थापित करना होगा। चेन्नई में यह प्रयोग बेहद सफल रहा जहाँ इस तरह स्थापित किये गये वाटर प्लांट से रोजाना 100 मिलियन लिटर पानी पीने योग्य पानी तैयार किया जाता है।

प्रदूषित जल का उचित उपचार किया जाय तथा इस उपचारित जल की आपूर्ति औद्योगिक इकाइयों को की जाय। पानी के इस्तेमाल में हमें सामूहिक रूप से मितव्ययी बनना होगा। छोटे-छोटे उपाय कर जल की बड़ी बचत की जा सकती है। मसलन हम दैनिक जीवन में पानी की बर्बादी कतई न करें और एक-एक बूँद की बचत करें। बागवानी जैसे कार्यों में भी जल के दुरुपयोग को रोकें। और सबसे बड़ी बात जनसंख्या बढ़ने से जल उपभोग भी बढ़ता है ऐसे में विशिष्ट जल उपलब्धता (प्रतिव्यक्ति नवीनीकृत जल संसाधन की उपलब्धता) कम हो जाती है। अतएव इस परिप्रेक्ष्य में हमें जनसंख्या नियंत्राण पर भी ध्यान देना होगा।

वास्तव में यह आज की नितांत आवश्यकता है कि हम वर्षाजल का पूर्णरूपेण संचय करें। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि बारिश की एक बूँद भी व्यर्थ न जाए। इसके लिये रेन वाटर हार्वेस्टिंग एक अच्छा माध्यम हो सकता है। आवश्यकता है इसे और विकसित व प्रोत्साहित करने की। इसके प्रति जनजागृति और जागरुकता को बढ़ाना भी आज की सामाजिक प्राथमिकता है। 

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