आलोक बृृजनाथ
घटना बहुत पुरानी नहीं है, अतः सभी को याद होगी। सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीश ‘लोकतंत्रा खतरे में है’ कहते हुए तथाकथित ‘जनता की अदालत’ में आ गए थे। इस घटना का सबसे चिंताजनक पहलू था मीडिया से मुखातिब हुए न्यायाधीशों का कुछ भी स्पष्ट नहीं करना और सब कुछ रहस्य के आवरण में लिपटे छोड़ कर पुनः अपने सुरक्षित किले में लौट जाना।
सरे-आईना तो उनका निशाना तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र थे लेकिन इसका बड़े पैमाने पर सन्देश यह गया कि पसे-आईना यानी असल निशाना पीएम मोदी थे। इससे यह अवधारणा स्थापित करने की कोशिश की गई कि सरकार न्यायपालिका के कार्यक्षेत्रा में दखलअंदाजी कर रही है और सीजेआई मोदी के इशारे पर काम कर रहे हैं। एक वर्ग में यह संदेह साफ और मजबूत था कि अगर इन न्यायाधीशों ने कुछ भी स्पष्ट नहीं किया है तो निश्चय ही यह एक साजिश है और ये किसी के टूल बने हैं।
जस्टिस मिश्रा के कार्यकाल के फैसलों पर नजर करें तो नब्बे फीसदी सरकार के खिलाफ गए मिलेंगे। रोहिंग्या मसले के निर्णय पर तो देशभर में तीव्र तीक्ष्ण प्रतिक्रिया हुई थी किंतु एक माहौल क्रिएट किया जाता है तो उसे इस तरह बुना जाता है कि वहां सब कुछ पीछे छूट जाता है। वे जो दिखाना चाहते हैं, जनता सिर्फ वही देख-सोच पाती है।
लोकतंत्रा तब खतरे में था, अब एक बार फिर खतरे में है। उस समय यह कहने वाले न्यायाधीश चार थे, आज यह कहने वाले उन्हीं में शामिल और अब स्वयं मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई हैं। सीधे देखा जाए तो न्यायमूर्ति गोगोई पर यौन शोषण का आरोप है। बिना जांच, बिना किसी कार्रवाई इस विषय पर कुछ कहना उचित नहीं लेकिन इसकी परिस्थितियां और समय बहुत से सवाल खड़े करते हैं लेकिन यह तो कहना ही होगा कि इसके पीछे जो तरकश है, उसमें तीर बहुत हैं। न्यायमूर्ति मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाया गया था, न्यायमूर्ति गोगोई के खिलाफ दूसरा हथियार सामने है।
ध्यान दें कि गोगोई के सीजेआई पद संभालते समय सोशल मीडिया पर दो विपरीत धाराएं एक साथ बहती दिखीं - एक दुखमय, एक सुखमय। एक खेमा उनके चिदंबरम के साथ बैठे फोटो शेयर कर रहा था और दूसरा उस चर्चित प्रेस कांफ्रेंस के। एक खेमे को लग रहा था कि अब उसके समस्त हित गड्ढे में डाल दिए जाएंगे और दूसरे को लग रहा था, अब तो सिर्फ वही होगा, जो हम चाहेंगे। यह स्थिति न्यायपालिका की साख और छवि के लिए बहुत घातक और दुर्भाग्यपूर्ण थी। न्यायमूर्ति गोगोई के अनेक फैसलों पर अंगुलियां उठीं। यह स्वाभाविक भी था, इसलिए कि कोई भी फैसला सभी को पसंद नहीं आ सकता। गोगोई ने संतुलन स्थापित करने की भरपूर कोशिश की लेकिन नतीजा सामने है।
एक विशेष वर्ग का मीडिया इस मामले को जिस तरह सामने लाया है, जिस तरह तूल दे रहा है, जिस तरह वायरल करा रहा है, वह इसे संदेह के घेरे में खड़ा करता है। प्रत्येक चुनाव को याद करें। कांग्रेस की परंपरा रही है कि वह एक साथ हर संभव मोर्चा खोलती है। प्रत्येक चुनाव से पहले कोबरा जैसे कुछ मंच सामने आते रहे हैं और उनका उद्देश्य सदा बीजेपी को निशाना बनाना रहा है।
क्या आपने कभी ऐसी किसी एजेंसी को कांग्रेस का स्टिंग करते देखा है? जो भी इक्का-दुक्का हुए हैं, वे निहायत निजी प्रयास रहे हैं। इस दौरान आने वाले महत्त्वपूर्ण मुकदमों की सूची पर एक नजर डालें, सब कुछ तिलिस्मी आइने की तरह साफ हो जाएगा कि यह तराजू के पलड़े को अपने पक्ष में झुकाने का प्रयास है।
इसके बावजूद कहूंगा कि न्यायमूर्ति गोगोई और उनके साथियों ने तब तो स्पष्ट नहीं किया था कि लोकतंत्रा खतरे में क्यों है, अब न्यायमूर्ति गोगोई को तो यह कर ही देना चाहिए। वजह और कोई हो या न हो, संदेहास्पद स्थिति अवश्य लोकतंत्रा के लिए खतरनाक है। वह इसकी जड़ें लगातार हिला रही हैं।
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