दिलेर समाचार,राज सक्सेना: आये दिन किसी न किसी रूप में भारत के किसी न किसी थाने से पुलिस के दुराचार की शिकायतें आती रहती हैं। ये किसी भी रूप में हो सकती हैं। अपराध के जितने भी प्रकार होते हैं पुलिस कर्मियों पर आये दिन लगाये जाते रहे हैं। दो चार दिन हो हल्ला होता है। सत्तासीन दल दो-चार दिन आश्वासन और भरोसा देकर और विरोधी दल शोर मचा कर पुलिस के बजाय सत्तासीन दल को दोषी करार करने पर तुल जाते हैं और मामला पुलिस व जनता के बीच से हट कर सत्तासीन और सत्ताविहीन दलों के बीच का होकर आरोप प्रत्यारोप की राजनीति की कब्रगाह में दफन होकर रह जाता है। बात आई गयी हो जाती है।
दो चार पुलिस वालों के लाइन हाजिर (यह कोई दण्ड नहीं है, मात्रा घटना क्षेत्रा से सम्बन्धित को हटाना मात्रा होता है ), निलम्बित (यह भी कोई दण्ड नहीं है, एकाध महीने में ऐसे आरोपी को सवेतन बहाल कर अन्यत्रा तैनाती दे दी जाती है ) हो जाने से जनता भी संतुष्ट होकर बैठ जाती है और पुलिस जिसे कानून की रक्षा का दायित्व निभाने के लिए नियुक्त किया जाता है, स्वयं कानून को ठेंगा दिखा कर फिर जनता और कानून को आँखें दिखाने लगती है। यह कोई एक दिन की बात नहीं है। कानून रक्षक किसी न किसी रूप में कानून को तोड़ते ही नहीं, उसकी हत्या भी करते रहते हैं और हमारा महान भारत और उसकी महान जनता इसे नियति का खेल और किस्मत की बात मान कर शांत बैठ जाती है।
आजादी के सत्तर साल में सत्तर प्रकरण भी ऐसे नहीं हैं जब इतने बड़े देश में पुलिस के प्रति कोई बहुत बड़ा आन्दोलन या विरोध चला हो। उलटे रोज पुलिस द्वारा कानून की अवमानना के साथ निरपराध को अपने स्वार्थों के वशीभूत या तो थर्ड डिग्री से स्वीकारोक्ति कराकर अपराधी घोषित कर दिया जाता है या फिर सबके सामने अपराध करने या नियम तोड़ने वाले माफिया को इस आधार पर निर्दोष करार कर दिया जाता है कि उसके विरुद्ध पर्याप्त साक्ष्य नहीं थे इसलिए फाइनल रिपोर्ट लगा कर प्रकरण बंद कर दिया गया है।
इस तरह का सबसे ताजा उदाहरण गुड़गांव का रेयान स्कूल का प्रकरण है जिसमें तीसरा दिन बीतते न बीतते एक बस कन्डक्टर को पकड़ कर उससे स्वीकारोक्ति कराकर उसे न्यायालय में पेश भी कर दिया गया। सुबह सात बजे हत्या का कारण भी बना दिया गया कि रात को उसकी पत्नी से लड़ाई हुई थी, इसलिए उसने बच्चे प्रद्युम्न से कुकर्म की चेष्टा की थी। सार्वजनिक शौचालय में इस तरह की हरकत स्कूल के प्रारम्भ होते ही कौन मूर्ख है जो करने की हिम्मत कर सकता है।
बाद में सीबीआई ने इस पूरी थ्योरी को उलट कर एक सीनियर छात्रा जो अपराधी प्रवृत्ति का था, को हत्या करने के आरोप में गिरफ्तार किया और उन्होंने जो कारण बताए, वे किसी हद तक माने जाने योग्य थे।
ईमानदारी की बात तो यह है कि जितने जघन्य अपराध थाने की सीमा और पुलिस की छत्राछाया में होते हैं उतने स्वतंत्रा रूप से नहीं होते। यह हम सब, भारत का अंतिम छोर का व्यक्ति भी जानता है किन्तु विवश है कुछ बोल ही नहीं सकता। अगर बोलने की हिम्मत करता है तो या तो किसी अपराध में जो उसने सोचा भी नहीं, बंद कर दिया जाता है या फिर उसको विभिन्न तरीकों से चुप रहने को विवश कर दिया जाता है। वह भी इसे नियति मान कर चुप हो जाता है।
कष्टप्रद और सोचनीय तथ्य यह है कि पुलिस में भ्रष्टाचार इसलिए अधिक खलता है क्यांेकि इससे असहायता, अराजकता, अन्याय और नाउम्मीदी का एक ऐसा मकड़जाल समाज में फैलता है जो स्वस्थ समाज की परिकल्पना के सर्वथा प्रतिकूल है। जिस कर्मचारी या विभाग जिस पर नियम, कायदे और कानूनों को लागू करवाने और उनके सुचारू संचालन की जिम्मेदारी है, अगर वही विपरीत आचरण करने लगे तो फिर उस क्षेत्रा के किसी सामान्य नागरिक से कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वह इन नियमों का पालन करे। इससे सम्पूर्ण तन्त्रा चरमरा उठता है और सारी व्यवस्थाएं ध्वस्त हो जाती हैं।
पुलिस में भ्रष्टाचार का स्वरूप और उसका फैलाव ऐसा है कि उसका अंदाज लगाना भी मुश्किल है। पूरे विभाग में अंगुलियों पर गिने जा सकने वाले लोग ही ईमानदार कहे जा सकते हैं। इस विभाग की मनमानी और थर्ड डिग्री की पराकाष्ठा का जीवित उदाहरण कर्नल पुरोहित और प्रज्ञा ठाकुर हमारे सामने हैं कि किस तरह रस्सी को सांप बनाने का प्रयास किया गया।
आखिर भारत की पुलिस व्यवस्था में दोष कहां पर है जो यह सब निर्बाध रूप से आजादी के बाद भी चल रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण 1886 में बनाया गया पुलिस एक्ट है जो अंग्रेजों ने अपने हिसाब से भारत की जनता को काबू में रखने के लिए बनाया था और वह अभी तक बहुत थोड़े से संशोधनों के चलते चल रहा है। इस एक्ट में पुलिस को अपराध लिखने और उसकी विवेचना के जो अधिकार दिए गये हैं वे पुलिस की मनमानी के सबसे बड़े कारण हैं। यदि आप स्वयं ही दोष लगाने और उन दोषों की जांच करने के अधिकारी हैं तो आपसे निष्पक्षता की अपेक्षा मूर्खता है। इसे तुरंत बदलना जनहित में है।
इसका दूसरा कारण है जवाबदेही का अभाव। सामान्यतः शासन यह मानकर चलता है कि एक बड़े क्षेत्रा के लिए उस क्षेत्रा में नियुक्त पुलिसबल अपर्याप्त होता है और इसी तथ्य की आड़ लेकर पुलिस कर्मी और अधिकारी थाने की पिछली दीवार के पीछे कई असंवैधानिक कार्यों को करवाने लगते हैं। यह सही है कि हर व्यक्ति के साथ एक पुलिसमैन नहीं खड़ा किया जा सकता लेकिन यह भी सही है कि पुलिस चाहे तो उसके क्षेत्रा में अपवादों को छोड़कर कोई अपराध नहीं हो सकता। यह बिलकुल सही है कि पुलिस का जनता के बीच अपना एक विशाल और व्यवस्थित सूचनातंत्रा काम करता रहता है जो पल-पल की सूचना थाने के प्रभारी तक पहंुचाता रहता है और इसी के आधार पर अपराधियों को संरक्षण भी प्राप्त होता रहता है, कभी राजनीतिक तो कभी सुविधाशुल्क के कारण पुलिस का भी।
अक्सर यह देखा गया है कि थाना हो या उसके कर्मचारी, छोटे मोटे अपराधियों के संरक्षक और हिस्सेदार होते हैं। यदि हर पुलिस वाले के अधीन क्षेत्रा की जबावदेही उस पर डाल दी जाय और अपवादों को छोड़कर उस क्षेत्रा में संगठित रूप से कोई अपराध होता है तो उस क्षेत्रा के सबसे बड़े अधिकारी को सस्पेंड नहीं, बर्खास्त करने की व्यवस्था की जाय तो अपेक्षात्मक सुधार सम्भव हो सकता है।
इसी प्रकार सेवा में आते ही हर पुलिसकर्मी से उसकी और उसके नजदीकी रिश्तेदारों और मित्रों की सम्पत्ति की सूची ली जाय और एक वर्ष में दो बार किसी अन्य एजेंसी के माध्यम से जांच की व्यवस्था की जाय। चयन और प्रशिक्षण के समय उन्हें उनके कार्यों और आचरण की जानकारी के साथ जवाबदेही की भी जानकारी कराई जाय। पुलिस में अक्सर देखा गया है कि भ्रष्ट अफसर अपने अधिकारियों को खुश रख कर मलाईदार पोस्टिंग पाते हैं तो ईमानदार अफसर और पुलिसकर्मी बहुत खतरे और दूरस्थ पोस्टिंग पर भेज दिए जाते हैं, इससे उनके साथ उनका परिवार भी उन्हें वही सब करने की प्रेरणा देने लगता है जो नहीं होना चाहिए।
इस सम्बन्ध में अनेक आयोगों द्वारा बहुत अच्छी अच्छी सिफारिशें की गयी हैं किन्तु बड़े अफसरों और राजनेताओं के निहित स्वार्थों के चलते वे रद्दी के ढेरों में पड़ी हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि उन्हें निकाला जाय और क्रमशः उन्हें लागू किया जाय। सबसे बड़ी बात यह है कि जिस व्यक्ति से घूस मांगी जा रही है, उस के शिकायत करने पर उसे प्रश्रय दिया जाय। लोगों को शिकायत करने के लिए प्रोत्साहित किया जाय और घूसखोरी के मुकदमों का त्वरित निस्तारण सम्भव किया जाय। कानूनी प्रक्रिया को सरलीकृत किया जाय।
तीसरी बात यह कि पुलिस को राजनैतिक दबावों से मुक्त रखने की एक मजबूत व्यवस्था बनाकर लागू की जाय। कितनी विडम्बना है कि भारत में घूस लेना और देना एक सामाजिक स्वीकारोक्ति प्राप्त कर चुका है। इसका समूलनाश आवश्यक है। बच्चे को उसके होश संभालते ही नैतिक शिक्षा की व्यवस्था को देने के प्रबंध आवश्यक हैं। राष्ट्रवाद और सामाजिक हितों की श्रेष्ठ जानकारी का अभाव भी इसका मुख्य कारण है। बच्चे में व्यक्तिवाद के स्थान पर राष्ट्रभाव की चेतना का उन्नयन समाज और राष्ट्र दोनों के लिए आवश्यक है। माँ बापों को भी प्रेरित किया जाय कि वे बच्चों में ईमानदारी जगाएं। इससे निश्चित रूप से पुलिस के साथ हर विभाग में और समाज के एक बहुत बड़े वर्ग में भ्रष्टाचार के प्रति अवहेलना का वह भाग जगेगा जिसकी इस समय पुलिस और राष्ट्र को नितांत आवश्यकता है।
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