Logo
April 19 2024 07:12 PM

'लाल सलाम' को आखिरी सलाम

Posted at: Mar 4 , 2018 by Dilersamachar 9651
राकेश सैन
दिलेर समाचार, कार्ल माक्र्स व लेनिन के बाद वामपंथ के सबसे बड़े नायक माओ से-तुंग मानते थे कि 'सत्ता बंदूक की नली से निकलती है।' उनके इसी ध्येय वाक्य को सत्य साबित करने के लिए आज जहां माओवादी व नक्सली आतंकी जगह-जगह रक्तपात करते हैं वहीं कथिततौर पर लोकतंत्र की समर्थक कहे जाने वाली पार्टियां भी माओ के उक्त विचार से सहमत रही हैं। यही कारण है कि देश में सीपीआई और सीपीआई (एम) कहने को तो चुनाव जीत कर सत्ता में आती परंतु वह अपने विरोधियों के साथ माओवादी सिद्धांतों के अनुसार ही व्यवहार करती रही हैं। 2 मार्च को होली के दिन देश के सुरक्षा बलों ने 12 नक्सलियों का सफाया कर दिया। अगले दिन मतदाताओं ने त्रिपुरा में 25 सालों से चली आरही वामपंथी सरकार को मतों की ताकत से धाराशाही कर इस देश की धरती पर बुलेट और बैलेट दोनों तरीकों से माक्र्सवाद के परास्त होने का संदेश दे दिया है। केवल केरल को छोड़ दें तो पूरे देश ने 'लाल सलाम' को आखिरी सलाम कर दिया है। 
 
किसी समय पूरी दुनिया को प्रभावित करने वाला और भारत में फैशन व प्रगतिशालता का पर्याय बना वामपंथ आज अंतिम सांस लेेने को विवश है। इसके कारणों पर चर्चा करें तो इसके लिए खुद वामपंथी ही अधिक जिम्मेवार दिखते हैं। माक्र्सवादियों के भारत के प्रति दृष्टिकोणा की झलक कार्ल माक्र्स के लेखों से ही मिल जाती है। 22 जुलाई, 1853 के लेख में माक्र्स ने कहा था, ''भारतीय समाज का कोई इतिहास ही नहीं है। जिसे हम उसका इतिहास कहते हैं, वह वास्तव में निरंतर आक्रांताओं का इतिहास है जिन्होंने अपने साम्राज्य उस निष्क्रिय और अपरिवर्तनीय समाज के ऊपर बिना विरोध के बनाए। अत: प्रश्न यह नहीं है कि क्या इंग्लैंड को भारत को जीतने का अधिकार था, बल्कि हम इनमें से किसको वरीयता दें, कि भारत को तुर्क जीतें, फारसी जीतें या रूसी जीतें, या उनके स्थान पर ब्रिटेन।'' माक्र्स ने भारत को कभी एक राष्ट्र नहीं माना और उनकी ये धारणाएं वामपंथियों की नीति-निर्धारक हैं। सर्वहारा की निरंकुशता स्थापित करने का उद्देश्य रखने वाले वामपंथियों के मस्तिष्क में राष्ट्रवाद का कोई स्थान नहीं। राष्ट्र और राष्ट्रवाद का विरोध करना उनका परम उद्देश्य है। सबसे ताजा उदाहरण हैं, जेएनयू में भारत की बर्बादी के नारे, सीताराम येचुरी द्वारा भारतीय सेनाध्यक्ष के बारे में की गई आपत्तिजनक टिप्पणियां।
 
वामपंथियों पर कई तरह के गंभीर आरोप हैं जिनका उन्हें देश को कभी न कभी ईमानदारी से उत्तर देना होगा। राष्ट्र के हर महत्त्वपूर्ण मोड़ पर वामपंथी मस्तिष्क की प्रतिक्रिया राष्ट्रीय भावनाओं से अलग ही नहीं बल्कि एकदम विरुद्ध रही हैं। गांधीजी के भारत छोड़ो आंदोलन के विरुद्ध वामपंथी अंग्रेजों के साथ खड़े थे। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को जापान के प्रधानमंत्री 'तोजो का कुत्ता' वामपंथियों ने कहा। मुस्लिम लीग की देश विभाजन की मांग की वकालत वामपंथी करते थे। अंग्रेजों के समय से सत्ता में भागीदारी पाने के लिए वे राष्ट्र विरोधी मानसिकता का विषवमन सदैव से करते रहे। कम्युनिस्ट सदैव से अंतरराष्ट्रीयता का नारा लगाते रहे हैं और इसकी आड़ में अपने ही देश का विरोध करते रहे। वामपंथियों ने गांधीजी को खलनायक और देश का विभाजन करने वाले जिन्ना को नायक की उपाधि दे दी थी। खंडित भारत को स्वतंत्रता मिलते ही वामपंथियों ने हैदराबाद के निजाम के लिए लड़ रहे मुस्लिम रजाकारों की मदद से अपने लिए स्वतंत्र तेलंगाना राज्य बनाने की कोशिश की। वामपंथियों ने भारत की क्षेत्रीय, भाषाई विविधता को उभारने की एवं आपस में लड़ाने की रणनीति बनाई।
 
1962 में जब देश चीन के धोखे से सन्न था और हमलावर से जूझ रहा था तो वामपंथियों पर आरोप लगे कि वे भारत में रहते हुए भी चीनी सेना का समर्थन करते रहे। भारत की भूमि पर चीन के लिए धनसंग्रह किया गया, चीन के हमले व धोखेबाजी को सर्वहारा वर्ग की क्रांति बताने का प्रयास हुआ। अपनी प्रकृति के अनुसार, वामपंथी इस देश की मिट्टी से जुड़े व राष्ट्र के पुनर्जागरण में लगे संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जानी दुश्मन मानते रहे। वामपंथी नेता वृंदा करात व प्रकाश करात के लेखों में चीन को भारतीयों का हितैषी बताया जाता रहा जबकि संघ को अमेरिका व पूंजीपतियों के गठजोड़ का हिस्सा होने के आरोप लगाए जाते रहे। अपनी ही इस जड़ विचारधारा के प्रति अंधविश्वासी वामपंथी वैचारिक विरोधियों के प्रति कितने असहिष्णु हैं इसका उदाहरण केरल व त्रिपुरा में संघ व भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्याएं हैं। पिछले एक दशक में दोनों राज्यों में डेढ़ सौ से अधिक राष्ट्रवादी संगठनों के कार्यकर्ता वामपंथ की बलिवेदी पर बलिदान दे चुके हैं। वामपंथियों पर आरोपों की फेरहिस्त काफी लंबी है परंतु सार संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि देश की संस्कृति व विचार के विपरीत यह विचारधारा लगभग आठ दशकों तक इस देश में जिंदा रह पाई यह भी किसी आश्चर्य से कम नहीं है। विदेशी मूल की वामपंथी विचारधारा का पराभूत होना तो निश्चित था परंतु उसका इतना लंबा चलना भी कोई कम विस्मयकारी नहीं है।
 
त्रिपुरा में बताया जाता है कि पूर्व मुख्यमंत्री माणिक सरकार की गरीबी व सादगी को मुखौटा बना कर देश को गुमराह किया जाता रहा और इस इलाके को भी गरीबी की जड़ों में जकड़ दिया गया। वहां हालत यह है कि खुद माणिक सरकार का निर्वाचन क्षेत्र बिजली, सड़क व पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित बताया जा रहा है। कर्मचारियों का हितैषी होने का दावा करने वाले वामपंथियों की सरकारों ने त्रिपुरा में अभी चौथा वेतन आयोग तक लागू नहीं किया है जबकि पूरे देश में सातवें आयोग की मांग की जाने लगी है। त्रिपुरा में वामपंथियों की हार पर पार्टी के नेताओं ने इसे धनबल की जीत बताया है। उनकी यह समीक्षा उतनी ही भोथरी है जितनी कि भारत जैसे सनातन राष्ट्र के प्रति उनकी विचारधारा। देश आज लाल सलाम को आखिरी सलाम कह रहा है तो इसके लिए कोई और नहीं बल्कि खुद वामपंथ ही जिम्मेवार है जो भारत में रहने वालों को भारतीयता से तोडऩे का प्रयास करता है।
 

 

ये भी पढ़े: इस-आसान तरीके से आप भी रहेंगे हेल्दी फॉर ऐवर

Related Articles

Popular Posts

Photo Gallery

Images for fb1
fb1

STAY CONNECTED