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शहीदों के सरताज गुरू अर्जुन देव जी की शहादत

Posted at: May 22 , 2019 by Dilersamachar 10540

त जसबीर कौर

‘जपियो जिन अर्जुन देव गुरू। फिर संकठ योनि गर न आइयो।।

इस महापुरूष की शहादत सिख इतिहास में एक नये लहू कांड को जन्म देती है। श्री गुरू अर्जुन देव जी की शहादत सिख इतिहास की प्रथम और सिरताज शहादत है। प्रथम इसलिए कि इस प्रकार की शहादत पहले कभी नहीं हुई, सिरताज इसलिए कि इस शहादत ने पंजाब भारत की रणभूमि में अमर शहीद की परम्परा का प्रारंभ किया है।

गुरूनानक देव जी का धर्म ग्रंथ और गुरू गोविंद सिंह द्वारा खालसा पंथ की स्थापना, दशम ग्रंथ पर रचा सारा गुरू इतिहास शहादत का ही प्रतिबिंब है परन्तु गुरू अर्जुन देव जी की साकार शहादत साक्षात ईश्वर की मिसाल है। गुरू अर्जुन देव जी की शहादत देश के निर्माण और इतिहास में एक अद्भुत देन है।

सिख धर्म के अनुसार गुरू गद्दी का वारिस बड़ा पुत्रा न होकर योग्यता के अनुसार होता था। गुरू अर्जुन देव जी अपने पिता रामदास जी की तीन भाइयों में सबसे छोटी संतान थे। इनका जन्म सन् 15 अप्रैल 1563 को माता भानी जी के गर्भ से गोविंदवाल में हुआ था। वे बाल्यावस्था से ही अपने माता-पिता के आज्ञाकारी पुत्रा थे और प्रभु भक्ति में लीन रहते थे। उन्हें गुरूवाणी से इतना अधिक प्रेम था कि उनके नाना श्री गुरू अमरदास जी ने प्रसन्न होकर उनको दोहता वाणी का बोहिया का आशीर्वाद दिया था।

गुरू अर्जुन देव जी को प्रजापालक और सभी प्रकार से योग्य समझकर सितम्बर 1581 ई. में मात्रा 18 वर्ष की आयु में गुरू गद्दी का वारिस ठहराया। यह देखकर इनके बड़े भाई पृथ्वीचंद, जो अपने आप को अपने पिता का वारिस समझते थे, उनसे शत्राुता रखने लगे परन्तु प्रेम और शांति के पुंज गुरू अर्जुन देव जी ने उनकोे कभी बुरा-भला नहीं कहा और न ही उनसे शत्राुता का भाव रखा।

गुरू अर्जुन देव जी ने एक सांझा धर्म स्थान श्री हरिमंदिर साहिब (अमृतसर) की स्थापना की जिसके चारों ओर दरवाजे रखे गए। इसके उपरांत आपने आदि गुरू ग्रंथ की रचना की जिसमें अलग-अलग धर्मों की सूफी संतों और भगतों की वाणियों का संकलन किया। लोगों को एक स्वतंत्रा धर्म का रूप दिया। उसके पश्चात प्रत्येक स्नान पर यही धुन सुनाई देने लगी। न हम हिन्दू न मुसलमान, अलहु राम के पिंड परान।

आपने श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी की रचना 1604 ई. में पूरी की। अमृतसर के स्वर्णमंदिर की नींव भी आपने सूफी संत हजरत मियां मीर से रखवाई जो हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक है।

मुगल सम्राट अकबर से आपके संबंध अच्छे थे। सम्राट अकबर ने गोविंदवाल में आपके नाना अमरवास जी द्वारा चलाये गये लंगर में पंगत में बैठकर लंगर भी ग्रहण किया था परन्तु जहांगीर के समय हालात इसके विपरीत थे जिसके कारण गुरू  अर्जुन देव जी को शहादत का जाम पीना पड़ा।

गुरू अर्जुन देव जी की शहीदी का प्रमुख कारण हिन्दुओं में आपसी फूट का होना था। ऐसा कहा जाता है कि गुरू जी ने संगतों के कहने पर चन्दूलाल दीवान की लड़की का रिश्ता अपने लड़के हरगोविंद जी के साथ करने से इंकार कर दिया इसलिए वह गुरू घर का विरोधी बन गया तथा दूसरे विरोधियों को भी इस बात को लेकर भड़काने का मौका मिल गया।

दूसरा कारण यह था कि जहांगीर पर मजहबी जुनून सवार था कि वह गुरू अर्जुन देव जी द्वारा चलाए गए धर्म को फलता-फूलता देख, सहन न कर सका। लोहा गरम देखकर पृथ्वीचंद और चंदूलाल जहांगीर के कान भरने लगे।

गुरूजी पर बागी खुसरो को तिलक लगाने और 5000/ रूपये मदद देने का झूठा आरोप लगाया गया। इस पर जहांगीर ने गुरू जी को लाहौर बुलवाया। गुरू जी अपने पांच सिखों के साथ लाहौर पहुंचे जहां पर ’सूबा लाहौर‘ ने आपको गिरफ्तार कर लिया। इतिहास गवाह है कि जिस तरह मजहबी जुनून में सवार होकर जहांगीर ने गुरू अर्जुन देव जी को कष्ट देने शुरू किये, यह देखकर कोई व्यक्ति क्या धरती भी कांप उठी।

पहले दिन गुरू जी को भूख और उनींदा (नींद न लेने देना) रखा गया। दूसरे दिन पानी की उबली देग में डाला गया जिसे देखकर तो इंसान की रूह कांप उठे। इतना ही नहीं, जून के महीने में गरम लोहे के तवे पर बिठाकर गुरू जी के शीश पर कड़े से गरम-गरम बालू डाला गया। इतिहासकार ऐसा कहते हैं इतना जुल्म होने पर गुरू जी ने ’उफ‘ तक न की। वह यही कहते रहे तेरा किया मीठा लागे। इतिहासकारों का कथन है कि अंत में जहांगीर निराश होकर क्रोध में इतना पागल हो गया कि उसने गुरू जी कोे गाय की खाल में मढ़वाने का क्रूर निश्चय कर लिया। जब गुरू जी को यह पता चला कि जहांगीर इतनी दुष्टता पर उतर आया तो उन्होंने रावी नदी में स्नान करने की इच्छा जाहिर की।  फिर गुरु को रावी नदी पर ले

जाया गया। फिर गुरू जी ने रावी नदी में डुबकी लगाई और समाधि ले

ली।

सूरज किरण मिली जल का जल हुआ राम।

ज्योति, ज्योति रली सम्पूर्ण थीया राम।।

इस प्रकार गुरू अर्जुन देव जी ने गुरू नानक के जामे में पांचवें गुरू के रूप में 30 मई 1906 ई. में शहीदी प्राप्त की जिससे सिख इतिहास में कुर्बानियों का कांड आरंभ हुआ। गुरू जी के समय रावी दरिया लाहौर के किले के साथ सटा हुआ था। गुरू जी की शहादत के बाद थोड़ा आगे को बढ़ गया जहां पर सिखों ने प्रेम और शांति के पुंज’ शहीदों के सिरताज की याद में समाधि बनाई जो आज डेरा साहिब ’लाहौर’ (पाकिस्तान) के नाम से प्रसिद्ध है।

अंत में हम गुरू अर्जुन देव जी के शब्दों में सच्ची श्रद्धांजलि के रूप में इस प्रकार कह सकते हैं:-

’जो तऊ प्रेम खेलन का चाऊ। सिर धरि तली गली मेरी आओ।। इत मारगि पैर धीरज। सिर दीजै काणि न कीजै।।

अर्थात सिखी की राह कोई फूलों की सेज नहीं है। यह एक कांटों भरा मार्ग है। इस राह पर चलने के लिए हमें अपना सिर हथेली पर लेकर चलना होगा।

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