दिलेर समाचार, नरेंद्र देवांगन , जंग किसी चीज का स्थायी समाधान नहीं है। पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के मिलन के बाद अमेरिका, दक्षिण-उत्तरी कोरिया इस आशय की दूसरी सबसे बड़ी सकारात्मक वैश्विक पहल है। काश, भारत और पाकिस्तान भी इससे कुछ सीख लेते। हालांकि दोनों देशों के बीच विवादों की उत्तर, दक्षिण कोरिया या अमेरिका से तुलना नहीं की जा सकती है लेकिन ऐसा भी नहीं कि किसी विवाद का समाधान न खोजा जा सके। पाकिस्तान हमेशा भारत के शांति प्रयासों पर उसकी पीठ में छुरा घोंपता रहा है, जबकि दोनों मुल्कांे की अधिसंख्य आबादी भी साथ मिलकर बढ़ने की हिमायती है। वर्तमान में ट्रेड वार से जूझ रही दुनिया के इस दौर में तो विकास की सीढ़ी तय कर रहे इन दोनों देशों का मिलन बहुत जरूरी हो जाता है।
पाकिस्तान का जो खर्च भारी-भरकम सेना के लिए हो रहा है, अगर उसका इस्तेमाल शिक्षा, स्वास्थ्य और लोगों को रोटी कपड़ा मकान देने में होता तो उसे चीन का पिछलग्गू नहीं बनना होता। दक्षिण एशिया में भारत-पाकिस्तान ऐसी सम्मिलित ताकत होते जिसको आंख तरेरना किसी महाशक्ति के बूते की बात नहीं होती। उत्तर और दक्षिण कोरिया के मिलन के कई सकारात्मक पहलू दिखने लगे हैं। चीन ने ताईवान और तिब्बत से मतभेदों को सुलझाने की बात कही है तो पाकिस्तानी नेता शाहबाज शरीफ ने भी भारत के साथ आपसी मतभेदों को दूर किए जाने की जरूरत बताई है। वह दिन कब आएगा, इसकी पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
अमेरिका और उत्तर कोरिया के बीच प्रमुख मुद्दा परमाणु हथियारों के इस्तेमाल का था। अमेरिका को डर था कि उत्तर कोरिया उस पर और उसके साथी देशों पर परमाणु हमले कर देगा जबकि भारत और पाकिस्तान के संदर्भ में यह मामला बेहद जटिल है। दोनों देशों के बीच धर्म क्षेत्रा और परमाणु हथियारों को लेकर लंबे समय से तनातनी बनी हुई है जिसकी वजह से बातचीत पेचीदा हो जाती है। अंग्रेजों की टू नेशन थ्योरी से जुदा हुए भारत-पाकिस्तान में आज फर्क सीधा दिखता है। भारत को दुनिया की महाशक्तियों में शुमार किया जाने लगा है तो पड़ोसी देश आतंकवाद को संरक्षित करने के लिए बदनाम हो रहा है। सिर्फ आर्थिक मसलों में ही नहीं, स्वास्थ्य सेवा, साक्षरता दर, मृत्यु दर में वह हमसे मीलों पीछे है।
दरअसल बंटवारे के बाद से ही उसकी प्राथमिकता में ये सारी चीजें नहीं रहीं। कर्ज लेकर घी पीने की उसकी नीति ने इस मुकाम तक पहुंचा दिया। भारत से ईर्ष्या मिश्रित प्रतिद्वंद्विता के चलते उसने भी रक्षा और सैन्य हथियारों पर भरोसा किया। उसी मद में बड़ा खर्च करता रहा। रही-सही कसर सेना को सर्वेसर्वा बनाने से पूरी हो गई। चुनी गई सरकारें सेना की कठपुतली के मानिंद काम करती हैं। अलबत्ता, ज्यादा दिन तो सैन्यशाही ही कायम रहती है। वो सेना की जरूरतों को प्राथमिकता में लेती है और जनता की जरूरतों को गौण समझती है।
पाकिस्तान से बात करना भारतीय विदेश मंत्रालय के लिए आसान नहीं है लेकिन उसे एक आम देश मानते हुए राजनीतिक सैन्य, आर्थिक व सांस्कृतिक संबंधों में तार्किक बातचीत से हल निकाला जा सकता है। इसके साथ ही सकारात्मक तत्वों को पाने के लिए समानांतर, लगातार और धैर्ययुक्त बातचीत का सहारा लेना होगा। इसका मतलब यह है कि दीर्घकालिक कूटनीति के दम पर बातचीत आगे बढ़ानी चाहिए न कि सौदेबाजी के दम पर। इसके अलावा लोगों से लोगों का संपर्क बढ़ाने के लिए अधिक उदार वीजा नियमों को बढ़ावा देना एक अच्छा कदम साबित हो सकता है।
भारत से हर हाल में बदला लेने की मानसिकता के चलते पाकिस्तानी सेना ने बिना सोचे समझे 1965, 1971 और 1999 में अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हुए भारत से युद्ध छेड़ दिया। अन्य देश बाहरी खतरों से बचने के लिए सेना तैयार करते हैं लेकिन पाकिस्तान अकेला ऐसा देश है जिसने ऐसी सेना बनाई है जिसे अस्तित्व में बने रहने के लिए किसी न किसी धमकी की जरूरत है। वह अपनी सारी ऊर्जा भारतीय हमले के डर पर केंद्रित करता है जो कि हकीकत में है ही नहीं।
पीपीपी के आधार पर भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। पाकिस्तान इसी मानक पर 25वें स्थान पर झूल रहा है। भारत की विकास दर दुनिया में सबसे तेज है, पाकिस्तान की दर छह से भी नीचे है। असुरक्षा के माहौल के चलते कम प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, भारी-भरकम कर्ज के जाल में फंसा हुआ, खराब प्रबंधन वाली टैक्स प्रणाली, निर्यात कम और आयात ज्यादा और महंगाई के चलते इसकी अर्थव्यवस्था कुलांचे नहीं भर पा रही है। कृषि मंे पैदावार घटने से इसने आग में घी का काम किया है।
2004 के बाद से अब तक एक बार वीजा के नियमों को उदार बनाया गया है जिससे दोनों देशों के बीच आवाजाही में इजाफा हुआ। अब भी पाकिस्तान में ऐसे बहुत से लोग हैं जो भारत घूमने आना चाहते हैं। दोनों देशों की संस्कृतियां भी आपस में रची-बसी हैं। भारतीय फिल्म उद्योग पाकिस्तानी लोगों के जीवन का अभिन्न अंग है। दोनों देशों की आम जनता के बीच मेलजोल बढ़ने से उस झूठी वैमनस्यता की परत उतर जाएगी जिसे पाकिस्तानी हुक्मरानों ने बढ़ावा दिया है और जिसका फायदा उठाते आए हैं।
भारत के बारे में पाकिस्तान ने जो धारणाएं बना रखी हैं उन्हीं की वजह से आतंक को वहां पनाह मिली हुई है। पाकिस्तान आतंकवाद के जरिए भारत को घाव देना चाहता है। दोनों देशों की दोस्ती के बीच जो सबसे बड़ी बाधा है वह है पाकिस्तानी सेना और धार्मिक कट्टरपंथी। भारत ने तो कई बार पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया है जिसका कोई हल ही नहीं निकला। जब तक पाकिस्तान अपने दिल से भारत के प्रति नफरत को नहीं निकाल देता तब तक शांति बहाली मुमकिन नहीं है।
सिंगापुर में हुई अमेरिका और उत्तर कोरिया की शांति वार्ता भारत और पाकिस्तान के बीच लगभग मृत पड़ी शांति व्यवस्था को फिर से जीवित करने की रूपरेखा बन सकती है। दोनों देशों के बीच तनाव को खत्म करने से भारतीय उपमहाद्वीप में परमाणु हथियारों को नष्ट किए जाने की राह निकल सकती है। किसी भी समस्या का समाधान जंग नहीं होती है। चार सीधी जंगों में हमसे मुंह की खा चुके पाकिस्तान के अपने अवाम की भलाई की खातिर अब साफ मन से वार्ता की मेज पर आ जाने की जरूरत है।
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