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कला से लोगों को बनाया जा रहा है, बेवकूफ

Posted at: Nov 16 , 2017 by Dilersamachar 9826

दिलेर समाचार, बेवकूफ बनाने की कला ईश्वर की अनुपम देन है। यह सबके के लिए सहज-सुलभ नहीं होती। ऊपरवाला अपने खासमखास बन्दों को ही इस कला का अमूल्य उपहार देता है। बात यह भी है कि यदि वे सबको इसका उपहार देने लगे तो फिर बेवकूफ बनने के लिए दुनिया में बचेगा कौन ? बनानेवाला एक हो तो बनने वाले भी तो सौ-पचास चाहिए। यह बेहद गरिमामय और सम्मानित कला है। किसी लल्लू-पंजू के वश की बात नहीं।

बेवकूफ बनाने की कला के महत्व को देखते हुए अप्रैल-फूल के नाम से एक अप्रैल को दुनिया भर  में धूमधाम के साथ इसका महोत्सव मनाया जाता है। पूरी धरती के कलाकार बेवकूफ बनाने की अपनी अनोखी कला का उस दिन अपने-अपने देश में नायाब प्रदर्शन करते हैं।

विद्वानों का ऐसा मानना है कि यह ईश्वरीय कला है और भगवान कृष्ण ने इस कला को जन्म दिया। जन्म ही नहीं दिया अपितु इसे अद्वितीय ऊँचाइयों तक पहुंचाया भी। वे बचपन से ही इस कला के मास्टर थे। माता यशोदा ही नहीं, गोपियों तक को वे अक्सर अपनी इस कला से चारों खाने चित कर देते थे।  परवर्ती जीवन में कालयवन और जयद्रथ जैसे शूरवीरों को निबटाने में भी उन्होंने अपनी इस कला का शानदार उदाहरण प्रस्तुत किया।

इस देश में अंग्रेजों के आने के साथ बेवकूफ बनाने की यह कला डेंगू की बीमारी की तरह बेरोकटोक फैलती हुई अपने उत्कर्ष की चरम ऊँचाइयों को छूने लगी। गोरे इस कला के छुपे रूस्तम थे।  वे इस देश में व्यापारी बनकर घुसे और अपने बेवकूफ बनाने के हुनर का सहारा लेकर बड़े-बड़े नवाबों, राजा-महाराजाओं का बिस्तर गोलकर दिया। देखते ही देखते सीन बदल गया, पंचम जार्ज और विक्टोरिया यहाँ के किंग और क्वीन बन गए। वे लगातार करीब सौ सालों तक हिन्दुस्थान को बेवकूफ बनाते रहे।

समुद्र मंथन के समय जब  भगवान् शिव ने विषपान किया, तब विष की कुछ बूंदे धरती पर गिर पड़ीं जिसे सांप, बिच्छू और दूसरे जहरीले कीड़े-मकोड़ों ने गटक लिया। आजादी के बाद अंग्रेजों के बेवकूफ बनाने की कला को उनके नौ-दो ग्यारह होते ही इस देश के खद्दरधारियों, चन्दन-चर्चित माथेवाले बाबाओं, व्यापारियों, सरकारी अधिकारियों और बाबुओं के सांप-बिच्छुओं ने लपक लिया।  ये खद्दरधारी जनसेवक दिल्ली की कुर्सी पर आराम से पसरे हुए कभी गरीबी हटाते हैं,कभी हिन्दुस्थान की धरती पर अच्छे दिन उतारते हैं। मजा यह कि उधर ठीक उसी समय गाँव में गरीब किसान गले-गले तक कर्जे में डूबे हुए आत्मह्त्या कर रहे होते हैं।

टी.वी.के चैनलों में बैठे या फिर अपने इंद्रपुरी जैसे सुख-सुविधाओं वाले अपने आश्रमों की गद्दियों में आराम से लेटे, बाबागण बेवकूफ बनाने की इस कला के उस्ताद होते हैं। वे जिन्दगी से परेशान भक्तों को संकटों से निजात दिलवाने के नाम पर उनसे मोटी-मोटी दक्षिणा झपटने के बाद उन्हें पुराना टूथब्रश बदलने या फिर पेप्सी पीने की सलाह देते हैं।  स्त्रिायाँ हुई तो उनकी समस्या समाधान के लिए उन्हें रात को अपने अंतःपुर की आध्यात्मिक सैर करवाते हैं। भक्तगण दक्षिणा दे-देकर जितने भिखारी होते जाते हैं,बाबाओं के आश्रम उतने ही भव्य बनते जाते हैं।                          

व्यापारीगण दुकान पर शुद्धता की गारंटी का बड़ा सा चमकीला बोर्ड लगाए  अपनी बेवकूफ बनाने की कला का नायाब नमूना दिखाते हुए,खाद्य पदार्थों में रेत, कंकड़, मिट्टी की मिलावट करके अपने हिन्दुस्थानी भाइयों की पाचन शक्ति को मजबूत करने में अप्रतिम योगदान देते हैं।  वैसे ही अनेक स्वनाम धन्य उद्द्योगपतिगण ,बड़े-बड़े उद्योग खोलने के नाम पर बेवकूफ बनाने की अपनी महान कला का प्रदर्शन करते  हुए बैंकों से करोड़ों-अरबों का कर्ज लेते हैं और एक दिन पब्लिक की मेहनत की गाढ़ी कमाई उदरस्थ कर माल्या महान की तरह हँसते-मुंह चिढ़ाते हुए,लन्दन-पेरिस भाग जाते हैं।                                                         

सरकारी अफसर और बाबू तो इस बेवकूफ बनाने की कला के महान विशेषज्ञ ही होते हैं। वे अपने पंजे में फंसे किसी भूखे-नंगे की आखिरी लंगोटी तक छीन सकते हैं। सरकार की हर योजना के  क्रियान्वयन के साथ उनका बैंक बैलेंस ही नहीं बढ़ता बल्कि शहरों में जगह-जगह बंगले, फार्म-हाउसों के साथ-साथ  चार चकिया गाडि़यों की संख्या भी बढ़ती जाती है। 

बेवकूफ बननेवाली जनता की हिदुस्थान में कमी नहीं है। रोज अलसुबह चौबीस घंटे बेवकूफ बनने को वे खुशी-खुशी तैयार मिलते हैं। वादों और आश्वासनों वाले मोतीचूर के लड्डुओं का टोकरा लेकर निकलिए। खाने के लिए लपकते,एक ढूंढों हजार मिलते हैं। बस,जरूरत है तो एक अदद घाघ बेवकूफ बनाने वाले की 

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