अभय कुमार सिंह
मानव की अधिकांश क्रियाओं का संबंध उसके स्वास्थ्य से किसी न किसी रूप में होता है। या तो उसकी क्रिया उसके स्वास्थ्य को प्रभावित करती है या उसका स्वास्थ्य उसकी क्रियाओं को प्रभावित करता है। ज्यादातर यह संबंध द्विमुखी ही होता है यानी व्यक्ति की क्रिया उसके स्वास्थ्य को प्रभावित करती है एवं उसका स्वास्थ्य भी उसकी क्रियाओं पर किसी न किसी प्रकार प्रभाव डालता है लेकिन बोलने की क्रिया का भी व्यक्ति के स्वास्थ्य से संबंध हो सकता है, यह थोड़ा अजीब सा लगता है।
जिस प्रकार मनुष्य की अधिकांश शारीरिक-मानसिक क्रियायें यथा-हृदय धड़कना, नाड़ी चलना, सांस लेना, रक्त का परिसंचरण होना, सोचना, चिंतन करना, समझना इत्यादि स्वास्थ्य से संबंधित होती हैं ठीक उसी प्रकार उसकी बोलने की क्रिया भी स्वास्थ्य से संबंध रखती है। अतः व्यक्ति का कम या ज्यादा बोलना उसके स्वास्थ्य को प्रभावित करता है।
आमतौर से व्यक्ति का कम या ज्यादा बोलना प्रत्यक्ष रूप से मानसिक स्वास्थ्य को ही प्रभावित करता है। चूंकि मानसिक स्वास्थ्य एवं शारीरिक स्वास्थ्य दोनों एक दूसरे से परस्पर जुड़े हुए हैं और दोनों एक-दूसरे को किसी न किसी रूप में प्रभावित करते रहते हैं, अतः व्यक्ति का कम या ज्यादा बोलना प्रत्यक्ष रूप से मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित तो करता ही है, परोक्ष रूप से शारीरिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता रहता है।
बोलने की क्रिया मानव जीवन का अभिन्न अंग है। इसके अभाव में मनुष्य का सामाजिक जीवन कठिन है। मानव अपनी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा वातावरण की जिन घटनाओं व स्थितियों को देखता, सुनता, अनुभव करता एवं समझता है उसके प्रति उसके मन में प्रतिक्रिया अनिवार्य रूप से होती है। आज अनेक मनोवैज्ञानिक प्रयोगों, शोधों एवं पर्यवेक्षणों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि मानव मन के अंदर संपादित प्रत्येक क्रिया-प्रतिक्रिया की अभिव्यक्ति अनिवार्य है चाहे अभिव्यक्ति किसी भी रूप में हो।
जब व्यक्ति तनाव की शाब्दिक अभिव्यक्ति यानी वाक् अभिव्यक्ति में अपने को असमर्थ पाता है तो वह इसके लिये अनुचित साधनों का सहारा लेता है, जैसे-कक्षा में जो शिक्षक छात्रों के अवांछित व्यवहारों से खिन्न होने के बाद उन्हें पीटने, डांटने-फटकारने या उपदेशात्मक रूप में अपनी भड़ास निकालने में असमर्थ होता है, वह परीक्षा में उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन के समय या प्रायोगिक परीक्षा में छात्रों को कम अंक प्रदान करके अपने असंतोष को अभिव्यक्त करता है। जब तक वह अपने इस असंतोष या खिन्नता को अभिव्यक्त नहीं कर लेता, तब तक तनाव के कुरेदने से परेशान रहता है और इस तनाव को व्यक्त करके परेशानीयुक्त परिस्थिति से छुटकारा पाने के लिये प्रयत्नशील रहता है।
ऐसी दशा में सिर्फ शिक्षक ही नहीं, सभी व्यक्तियों की यही स्थिति होती है और सभी मनुष्य अभिव्यक्ति के अभाव में तनाव से थोड़ा-बहुत अवश्य ही ग्रसित रहते हैं। तनाव के कारण व्यक्तियों में संवेगात्मक अस्थिरता आ जाती है। उनका मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है। फलस्वरूप वे अवांछित व्यवहार या समाजविरोधी व्यवहार करने को बाध्य होते हैं। ऐसे अवांछित व्यवहार ही मानसिक अस्वस्थता का संकेत देते हैं।
तनाव से ग्रस्त या संवेगात्मक रूप से अस्थिर व्यक्ति के रक्त में कुछ रसायनिक तत्वों जैसे जिंक, सीसा, पारा इत्यादि की मात्रा असंतुलित हो जाती है। साथ ही ग्रन्थियों के स्राव भी अनिश्चित मात्रा में एवं अनियमित ढंग से होने लगते हैं जिसका शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अतः मानसिक स्वास्थ्य के साथ-साथ शारीरिक स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिये भी तनाव से या अन्य अवांछित संवेगात्मक परिस्थितियों से मुक्त होना जरूरी है। चूंकि तनावपूर्ण बातों को अभिव्यक्त कर देने से तनाव से मुक्ति मिलती है, अतः मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए अभिव्यक्ति अनिवार्य है।
मानव अपने अंदर संपादित सभी क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं की अभिव्यक्ति अनेक क्रियात्मक साधनों द्वारा करता है जिसमें सर्वप्रमुख साधन है वाक् अभिव्यक्ति, यानी बोलकर व्यक्त करने का। अभिव्यक्ति के क्रियात्मक साधनों में अधिकांश या तो कठिन होते हैं या उन्हें सामाजिक स्वीकृति प्राप्त नहीं होती लेकिन बोलना ऐसा साधन है जो व्यक्ति की सभी प्रतिक्रियाओं एवं संवेगात्मक परिस्थितियों की अभिव्यक्ति उचित ढंग से करा सकता है। इसके लिए व्यक्ति की भाषा क्षमता का थोड़ा विकसित होना जरूरी है।
कभी-कभी व्यक्ति अपने तनाव की अभिव्यक्ति अभीष्ट व्यक्ति की ओर करने में असमर्थ होने पर उसके सदृश अन्य वस्तुओं या व्यक्तियों की ओर तोड़-मरोड़कर कर डालता है एवं तनावमुक्त होता है। कभी-कभी वह असंबंधित व्यक्ति के समक्ष भी अपनी भड़ास निकालता है।
इस प्रकार वाक् अभिव्यक्ति सबसे सरल, सुलभ एवं उपयुक्त साधन है जिसके माध्यम से तनाव से छुटकारा तो मिल ही जाता है, साथ-साथ मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य भी बना रहता है। स्वास्थ्य कायम रहने पर हमारे अंदर अनेक सद्गुणों का विकास भी होता है।
उपरोक्त बातों का अर्थ यह नहीं कि ज्यादा बोलना सदा लाभदायक ही होता है। एक निश्चित सीमा से ज्यादा बोलना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी होता है। इसका मतलब यह भी नहीं कि बोलते समय जिस तरह की भाषा मन में आये, गाली-गलौज हो या किसी के हृदय को ठेस पहंुचाने वाली, सब बोलते जायें।
बोलने में जितनी ही उच्चस्तरीय एवं संतुलित भाषा का प्रयोग करेंगे, समाज में समायोजन भी उतने ही अच्छे ढंग का उतने ही अधिक दिनों तक बरकरार रहेगा एवं हम स्वस्थ भी रहेंगे। उपरोक्त बातों से यह भी समझना चाहिये कि ज्यादा बोलना किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य को पूर्णतः ठीक रखने की दवा है बल्कि यह व्यक्ति को स्वस्थ बनाये रखने हेतु आवश्यक विभिन्न दशाओं में से एक है।
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