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धनराज का बचपन पुणे की हथियार की फैक्टरियों की गलियों में हॉकी खेलकर बीता है। उनकी तुलना क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर से की जाती है। महान खिलाड़ी धनराज का बचपन गरीबी की चादर तले बीता। कुल पांच भाई-बहनों में उनकी हॉकी को कोई आर्थिक समर्थन मिले, ये काफी मुश्किल था। बावजूद इसके उनकी मां और भाई ने काफी समर्थन किया।
धनराज के पास इतना पैसा नहीं होता था कि वे एक अच्छी हॉकी स्टीक खरीद सके। उन्हें जुगाड़ से काम चलाना पड़ता था। वे टूटी हुई हॉकी को रस्सी से बांधकर खेला करते।
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मोहल्ले की गलियों में शाम के वक्त जब सभी लड़के हॉकी खेलते तो धनराज को काफी शर्मिंदगी महसूस होती। ऐसा इसलिए क्योंकि अन्य बच्चों के पास नई हॉकी स्टीक होती थी तो वहीं वे टूटी हुई हॉकी स्टीक से खेलते जिसे उनके भाई गुंदर और रस्सी से बांधकर साथ में एक बेकार सी बॉल उन्हें थमा देते। भाई धनराज के हौसले को बढ़ाने के लिए कहा करते थे कि अभी तू इसी हॉकी स्टीक से खेल और जब तू अच्छा खेलने लगेगा तब तुझे मैं नई स्टीक लाकर दूंगा।
उन्हें भाई के द्वारा कही गई ये बातें अच्छी नहीं लगती थी और उन्होंने तो इस खेल को छोड़ने तक का मन बना लिया था। लेकिन मां के द्वारा बार-बार समाझाए जाने पर उन्होंने अपनी प्रैक्टिस जारी रखी।
धनराज की मां अक्सर उन्हें समझाती थी- बेटा हॉकी कभी मत छोड़ना। तू और ज्यादा प्रैक्टिस कर, तेरा खेल और भी पक्का हो जाएगा और फिर जाकर तू हॉकी टीम में खेलेगा।
माता के प्रोत्साहन वाले शब्द सुनकर वे अपनेआप को और ज्यादा खेल में झोंक देते थे।
धनराज को अगर अपने पूरे जीवन में किसी से अत्यधिक लगाव था तो वो थीं उनकी मां जो हमेशा उनका हौसला बढ़ाया करतीं। तभी तो धनराज ने अपनी मां के प्रति भावनाओं को व्यक्त करते हुए कहा था कि – यह कल्पना करना कठिन है कि इस घर में इतने कम साधन होते हुए भी मां ने हमे पाल पोसकर बड़ा किया और हम सबको एक अच्छा इंसान बनाया।
धनराज के नाम के पीछे एक बड़ा ही मजेदार किस्सा जुड़ा है। धनराज के जन्म से पहले उनका परिवार बदहाली की जिन्दगी जी रहे थे। माता-पिता को लगा कि क्यों न चौथे बेटे का नाम धनराज रखा जाए जिससे आगे चलकर उनकी किस्मत बदल जाए। और हुआ भी कुछ ऐसा ही, खेल जगत में धनराज की कामयाबी आज सर चढ़ कर बोल रही है।
धनराज को पहली बार साल 1989 में भारतीय टीम के लिए खेलने का मौका मिला और फिर वे पलटकर पीछे कभी नहीं देखे।
साल 1989 से 2004 तक के अपने 15 वर्षों के करियर में उन्होंने 339 अंतराष्ट्रीय मैच खेले और तकरीबन 170 गोल किए।
धनराज ने जिस समर्पण के साथ देश के लिए हॉकी खेली, देश ने बदले में उन्हें कुछ नहीं दिया। यहां तक कि अपने आखिरी ओलिंपिक (एथेंस ओलिंपिक 2004) में उन्हें पूरा 70 मीनट खेलने भी नहीं दिया गया। धनराज ने इस दर्द को शब्दों में बयां किया- आईएचएफ ने कभी खिलाड़ियों का सम्मान नहीं किया। उन्होंने मुझे वो इज्जत नहीं दी। उन्होंने मेरी मेहनत और मेरी कुर्बानियों की कभी कद्र नहीं की।
धनराज पिल्लै को साल 1995 में उन्हें अर्जुन पुरस्कार से नवाजा गया। साल 2000 में उन्हें पद्मश्री का सम्मान प्राप्त हुआ।
Prince
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