दिलेर समाचार, आशीष वशिष्ठ: गुजरात और हिमाचल में एक बार फिर मोदी का जादू चला है। गुजरात में भाजपा ने अपनी सत्ता बचाई है तो वहीं पहाड़ी राज्य हिमाचल में उसने कांग्रेस से सत्ता छीन ली है। एग्जिट पोल के जरिए जिन अनुमानों के संकेत मिले थे, वो कमोबेश सही साबित हुए। हिमाचल को लेकर शुरू से ही कांग्रेस आलाकमान का रूख उदासीन था लेकिन गुजरात को लेकर कांग्रेस ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। बावजूद इसके मोदी और शाह की जोड़ी अपना किला बचाने में सफल रही लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद पहली बार कांग्रेस भाजपा को सीधी टक्कर देती दिखी। राहुल गांधी एक गम्भीर नेता के तौर पर दिखे। राहुल गांधी ने मोदी को सीधी टक्कर दी। चुनाव नतीजों के बाद यह साफ तौर पर कहा जा सकता है कि इन चुनावों में भाजपा की बजाय ब्रांड मोदी की जीत है।
देश-दुनिया की नजर गुजरात चुनाव पर थी। गुजरात चुनाव में प्रधानमंत्राी नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी।
कांग्रेस भाजपा को रोकने के लिए गुजरात के तीन युवा नेताओं- हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी को अपने साथ जोड़ने में सफल रही थी। ये तीनों युवा गुजरात में पाटीदार आंदोलन, दलित और ओबीसी मुद्दों को लेकर बड़े नेता माने जाते हैं। ऐसे में इन तीन युवाओं के साथ आने से कांग्रेस मजबूत स्थिति में दिख रही थी। पूरे चुनाव में भाषा का स्तर बहुत गिरा, तीखी भाषणबाजी से लेकर जुमलेबाजी तक दिखी।
एग्जिट पोल में ऐसे संकेत भी सामने आए थे कि हार्दिक पटेल और दो अन्य युवा खिलंदड़े पूरी तरह नाकाम साबित हो सकते हैं। करीब 55 फीसदी पटेल वोटरों ने भाजपा के पक्ष में मत दिया है। अगड़ी जातियों में करीब 58 फीसदी और आदिवासियों में करीब 52 फीसदी मत भाजपा को मिलते नजर आ रहे थे, यानी कांग्रेस ने ‘भानुमती का कुनबा’ जोड़ने की जो कोशिश की थी, वह नाकाम हो गयी। पटेलों के आरक्षण का जो मुद्दा राहुल गांधी और युवा खिलंदड़ों ने खूब जोर-शोर से उठाया था, उसके खिलाफ अन्य युवा वर्ग ने भाजपा का समर्थन किया है, ऐसे संकेत चुनाव नतीजों से मिल रहे हैं।
गुजरात में बेशक रोजगार का मुद्दा अहम रहा होगा। चुनाव नतीजों से स्पष्ट होता लग रहा है कि भाजपा ‘अश्वमेध यज्ञ’ की तरह चुनाव लड़ती है जबकि कांग्रेस को यह चुनावी हुनर सीखना है। एक ही राज्य में लगातार छठी बार सत्ता हासिल करना कोई अटकलबाजी या आंकड़ेबाजी नहीं कही जा सकती। गुजरात चुनाव नतीजों के बाद अब काफी हद तक जीएसटी या ‘गब्बर सिंह टैक्स’ का जुमला असरहीन हो जाएगा। नतीजों से ऐसा लग रहा है कि प्रधानमंत्राी मोदी गुजराती व्यापारियों को यह समझाने में सफल रहे कि जीएसटी ‘घर का मामला’ है, उसे बाद में देख लेंगे और आवश्यक सुधार भी किए जा सकते हैं।
गुजरात में पिछले दो दशकों से पार्टी आराम से मोदी के नाम पर चुनाव लड़ती और आसानी से जीतती आई थी। चुनावी हवाबाजी ज्यादा होती थी लेकिन इस बार पार्टी अपने कार्यकर्ताओं को जमीन पर उतारने को मजबूर हुई है। बीजेपी को अपनी रणनीति क्यों बदलनी पड़ी, इसकी कई वजहें हैं। पहली बात तो यह कि मोदी के बाद जिनके हाथ गुजरात की डोर आई, वो उनकी विरासत को आगे नहीं बढ़ा सके। मौजूदा मुख्यमंत्राी विजय रमणीकलाल रूपानी की इस चुनाव में कोई हैसियत नहीं थी। उन्हें मोदी का वारिस कम और जीत के मजे लेने वाला ज्यादा कहा जाता है।
राज्य बीजेपी में नेताओं के बीच लड़ाई में वो एक खेमे के नेता भर माने जाते हैं। मोदी की बराबरी की तो खैर बात ही नहीं, उन्हें तो ढंग से राज्य का मुख्यमंत्राी भी नहीं माना जाता। दूसरी बड़ी वजह यह है कि कारोबारी, किसान, पाटीदार, दलित और युवा बीजेपी से नाराज हैं। पिछले कई सालों में पहली बार ऐसा देखने को मिल रहा है कि ये लोग अपनी गुजराती पहचान से ऊपर उठकर वोट करने को राजी दिख रहे हैं। वो अपनी समस्याओं के बारे में बात कर रहे हैं। वो गुजराती से ज्यादा अपने-अपने समुदायों की बातें और उनकी दिक्कतों के बारे में बातें कर रहे हैं। ये नाराजगी राहुल गांधी के चुनाव प्रचार में दिखी। राहुल की रैलियों में काफी भीड़ जुटी। कई जगह तो लोगों ने बीजेपी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को अपनी बात रखने तक से रोक दिया।
गुजरात चुनाव नतीजो से यह भी साबित हो गया है कि मशरूम खिलाने, चुनावी या फैंसी हिंदू बनने या विकास को पागल करार देने से ही चुनाव नहीं जीते जा सकते। इन मायनों में राहुल गांधी 57 रैलियां करने और करीब 20,000 किलोमीटर की यात्रा करने अथवा 28 बार मंदिरों में दर्शन और पूजा-पाठ करने के बावजूद नाकाम साबित हो गये। इस पर अब उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद गहरा मंथन करना पड़ेगा तथा चुनाव की पूरी रणनीति बदलते हुए अपने सलाहकार भी बदलने होंगे।
आज भले ही भाजपा गुजरात और हिमाचल की जीत पर भाजपा जशन मना रही हों लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि धीरे-धीरे ही सही, कांग्रेस भाजपा को टक्कर देने की ताकत बटोर रही है। कांग्रेस राज्यों में सरकार विरोधी और नाराज लोगों और संगठनों को अपने साथ जोड़ने की रणनीति पर काम कर रही है। गुजरात में भाजपा की जीत में ही उसकी छवि हार छिपी है। गुजरात और हिमाचल में भाजपा नहीं, ब्रांड मोदी की जीत हुई है।
विपक्ष की बढ़ती चुनौतियों के बीच ब्रांड मोदी के ऊपर पार्टी की अत्यधिक बढ़ती निर्भरता सकारात्मक संकेत नहीं है। भाजपा को ब्रांड मोदी से आगे सोचना ही होगा। वैसे 22 सालों के शासन के बाद गुजरात में छठी बार सरकार ने बनाकर भाजपा ने साबित कर दिया है कि वो नाराजगी का रूख बदलना सीख गई है।
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