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ये है इंसानियत को सबसे बड़ा खतरा

Posted at: Mar 17 , 2018 by Dilersamachar 10071

डा. विनोद बब्बर

दिलेर समाचार, हम अक्सर अपनी युवा पीढ़ी की स्वच्छन्दता की चर्चा करते हैं। वैश्वीकरण के नाम पर वेश्यायीकरण और  आधुनिकता के नाम पर बढ़ती अश्लीलता का रोना रोते हैं लेकिन कभी अपने आपसे यह पूछने का साहस नहीं चाहते कि इस स्थिति के लिए हम कितने दोषी है? बहुत संभव है आप कहंे कि ‘हमने न तो कभी कोई गलत काम किया है और न ही गलत का समर्थन किया है। तब हम दोषी क्यों?’ ऐसे में अपने आपसे फिर एक सवाल पूछना चाहिए कि आपने गलत को सही नहीं कहा लेकिन क्या आपने गलत को गलत कहा?अगर आपका उत्तर हां है तो आपका अभिनन्दन लेकिन अगर आप कहते हैं कि हम किस किस को गलत कहेंगे तो आप  अभिनन्दन के पात्रा नहीं है।

आइये एक ताजा घटनाक्रम की चर्चा करें। आप जानते ही है वार्षिक परीक्षा आरंभ होने से पहले लगभग सभी स्कूलों में 12 वीं के छात्रों को विदाई पार्टी का प्रचलन है। इस अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि भी होते है। अंत में उनके शिक्षक मुख्याध्यापक अपने आशीर्वाद रूपी दो शब्द कहते हुए उन्हें उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएं देते हैं। ऐसे कार्यक्रम 11 वीं और 12वीं के छात्रों द्वारा आयोजित किये जाते हैं। इसलिए आपसी सहयोग से संसाधन जुटाने से कार्यक्रम की रूपरेखा तय करने तक वे स्वयं सब कुछ करते हैं। कुछ छात्रा सांस्कृतिक कार्यक्रम के साथ यज्ञ, खानपान को भी शामिल करंे तो इसमें कैसा आश्चर्य? कैसे अपराध?

एक शिक्षक जिसके आचरण से सुपरिचित छात्रों ने उन्हें अनावश्यक महत्व नहीं दिया तो उन्होंने शिक्षा निदेशालय को पत्रा लिखकर विदाई पार्टी के यज्ञ को जादू टोना टोटके की संज्ञा दी है जिससे देश की धर्मनिरपेक्षता को खतरा है। उनका मानना है कि हवन से ज्यादा जरूरी  नौजवानों के लिए रोजगार आवश्यक है। उन्हें  भ्रम है कि बेरोजगारी का कारण यज्ञ है। उस दुष्ट के ‘कु्प्रयासों’ का प्रतिफल है कि इस बार अनेक विद्यालयों में यज्ञ आदि नहीं हुए परंतु डीजे और अश्लील नृत्य जरूर हुए क्योंकि उन्हें इस पर कोई आपत्ति नहीं है। शायद वे समझते है कि ऐसे कार्यो से धर्म निरपेक्षता मजबूत होती हे या होगी।

वे नहीं जानते या नहीं जानना चाहते कि इस देश का उच्चतम न्यायालय इसे जीवनशैली के रूप में मान्य कर चुका है। वे यह भी नहीं जानते या नहीं जानना चाहते कि ऐसे अवसरो पर सभी छात्रा बिना किसी भेदभाव के मिलकर यज्ञ में शामिल होते हैं।

वे नहीं जानते या नहीं जानना चाहते कि भारतीय संविधान की  मूल प्रति को प्रख्यात चित्राकार नंदलाल बोस ने 22 चित्रों से सजाया था। सुनहरे बार्डर और लाल-पीले रंग की अधिकता लिए हुए इन चित्रों में राष्ट्रीय प्रतीक अशोक की लाट, शतदल कमल  को भी जगह दी ही गई है। ऋषि आश्रम भी है जिसमें  गुरु उनके शिष्या और  एक यज्ञशाला भी है।

वे नहीं जानते या नहीं जानना चाहते कि संसद में 16 स्थानों पर सुनहरी अक्षरों से धर्म एवं सत्य के महत्व को अंकित किया गया है। लोकसभा के सुविशाल कक्ष में सभाध्यक्ष के पीछे ललित विस्तारः, अध्याय-26 की प्रसिद्ध सूक्ति अंकित है- धर्मचक्र-प्रवर्तनाय  अर्थात् धर्म की प्रक्रिया को गतिमान रखना ही हमारा लक्ष्य हो, यही हमारी कामना हो।

 राज्यसभा के एक प्रवेश द्वार पर अंकित है ‘सत्यं वद, धर्मं चर’, तैत्तारियोपनिषद् के शिक्षावल्ली से लिया गया यह वाक्य सत्य वचन ही सत्य की प्रतिष्ठा में सहायक हो सकता है। इस बात का संकेत देकर आचरण के प्रति भी चेतावनी देता है कि हम धर्म के पथ का अनुकरण करें।

राज्यसभा के एक द्वार की दीवार धर्म की व्याख्या स्पष्ट करते हुए कहती है कि ‘अहिंसा परमो धर्मः’ महाभारत के वन पर्व (207-74) से लिया गया यह सिद्धांत भारत के स्वाधीनता आंदोलन का प्रमुख हथियार था। ‘परहित सहिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई’ तथा ‘वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीर पराई जाने रे।’ आदि कथनों को कर्मों में प्रकट करने का एक प्रभावी माध्यम है राजनीति।

राज्यसभा के ही एक द्वार पर ऋग्वेद (1-164-46) से लिया गया बोध वाक्य अंकित है- ‘एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति’ सत्य एक ही होता है, विद्वत् जन उसकी कई तरीकों से व्याख्या करते हैं।

राज्यसभा के ही एक अन्य द्वार पर भगवत गीता के (18-45) श्लोक से लिया गया वाक्य अंकित है ‘स्वे-स्वे कर्मण्यभिरत संसिद्धि लभते नरः’ हर व्यक्ति अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए सिद्धि प्राप्त कर सकता है। अधिकार का भाव छोड़कर कर्तव्य की भावना से हमारे जन प्रतिनिधि आचरण करें, यह संदेश हम सब के लिए महत्वपूर्ण है। अधिकार की लड़ाई की राजनीति को कर्तव्य पालन की स्पर्धा में बदलना आज की महती आवश्यकता है।

लिफ्ट की ओर चलें तो प्रथम लिफ्ट के गुबंद पर अंकित महाभारत (5-35-58) से लिया गया यह श्लोक सत्य एवं धर्म की बात को और अधिक स्पष्ट करता है-न सा सभा यत्रा न सन्ति वृद्धाः, वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मः। धर्म सः न यत्रा न सत्यमस्त, सत्यम् न तत् यत् छलमभ्युपैति।।  अर्थात वह सभा सभा नहीं होती जिसमें वरिष्ठ जन न हों। वह व्यक्ति वरिष्ठ जन कहलाने के योग्य नहीं है, जिनके वचन धर्म-सम्मत न हों। वह वचन धर्म-सम्मत नहीं होते, जिनमें सच्चाई न हो एवं वह वचन सत्य वचन नहीं हो सकते, जिनमें छल-कपट भरा हो। छल-कपट की राजनीति को हम जितना पारदर्शी बनायेंगे, छल-कपट की मात्रा उतनी ही कम होकर सभा की गरिमा बढ़ाती रहेगी।

लिफ्ट क्रमांक 2 के गुबंद पर मनुस्मृति (8-13) से लिया गया  श्लोक अंकित है जो सभासदों को उनके आचरण एवं व्यवहार के प्रति सतर्क करता है- ‘सभा वा न प्रवेष्टव्या, वक्तव्यम् वा समंजस्। अब्रवन, बिबुवन वापि नरो भवति किल्मिषी।’  अर्थात भले ही कोई सभा में प्रवेश ही न करे किन्तु जब प्रवेश करे तो ठीक तरह से धर्म एवं न्यायसंगत वचन ही बोलने चाहियें। जो सदस्य सभा में बोलेगा ही नहीं या झूठ बोलेगा, वह पाप का भागी होगा।

लिफ्ट क्रमांक 3 पर अंकित विदुर नीति का श्लोक है- दया मैत्राी च भूतेषु दानम् च मधुरा च वाक्।  न ही दृशम् सं वननं त्रिशुलोकेषु विद्यते। अर्थात् प्राणी मात्रा के प्रति दया, मैत्राी, दान देने की प्रवृत्ति और मधुर संभाषण का स्वभाव यह चारों गुण एक साथ होना त्रिलोक में दुर्लभ है। इसके पीछे यही भाव है कि ऐसे दुर्लभ व्यक्ति ही जन प्रतिनिधि के नाते निर्वाचित होकर इस सभागृह में आने चाहिएं। साथ ही यह भी अपेक्षित है कि अपने आप को इस प्रकार के दुर्लभ व्यक्तित्व से निखरित करना हर जनप्रतिनिधि का संकल्प बने। क्या यह संभव नहीं है?

लिफ्ट क्रमांक 4 पर तो स्वयं शासक के लिए राजधर्म का पालन करने हेतु मार्गदर्शन करने वाला शुक्रनीति का श्लोक अंकित है- सर्वदा स्यान्नृपः प्राज्ञः, स्वमते न कदाचन। सभ्याधिकारिप्रकृति-सभासत्सुमते स्थितः। अर्थात् राजा (शासक) का हमेशा अत्यन्त विद्वान होना आवश्यक है परंतु उनका कभी भी अपने व्यक्तिगत मत पर अड़े रहना उचित नहीं। उन्हें सदस्यों, अधिकारियों, सामान्य जन तथा सभा में उपस्थित सभासदों से सत्परामर्श कर निर्णय लेना चाहिये। प्रधानमंत्राी तथा सभी विभागीय मंत्रियों की कार्यप्रणाली के लिए यह दिशा-निर्देश सार्वभौमिक है। प्रशासन में पारदर्शिता बनाये रखने की यही अनिवार्य शर्त है।

संसद भवन के प्रथम द्वार से होकर केंद्रीय सभागृह के प्रांगण की ओर बढ़ने पर पंचतंत्राः, 5-21 श्लोक लिखा है- अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसां। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्फ। अर्थात् यह मेरा है एवं वह दूसरे का है, ऐसा दृष्टिकोण छोटे मन वालों का होता है। उदार मन वालों के लिए तो पूरा विश्व ही एक अपना परिवार होता है।

ऐसे अनेक उदाहरण है जिनकी जानकारी सभी को होनी चाहिए वरना हम उस आत्मकेन्द्रित और दुराग्रही शिक्षक के नाम पर कलंक नराधम के षड़यत्रों का शिकार बनते रहेंगे। धर्मनिरपेक्षता की आड़ में यज्ञ को ‘अवांछनीय’ बताने वाले इन समाज विरोधी लोगों का सामाजिक बहिष्कार किया जाना चाहिए चाहिए। आश्चर्य है कि ये तत्व सरकार में किस प्रकार घुसपैठ कर जाते हैं। उससे भी बड़ा आश्चर्य कि वे व्यवस्था को अपने ढंग से भ्रमित करने में सफल रहते हैं।

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