दिलेर समाचार, सत्यनारायण भटनागर: हमारे आस पास जो लोग रहते हैं, वे हमें सामान्य दिखाई देते हैं। वे हंसते, मुस्कराते दिखाई देते हैं, उनमें तनाव दिखाई नहीं देता किन्तु अपने अन्दर एक घाव लिए बैठे होते हैं। वह घाव कभी-कभी दिखाई पड़ जाता है तो व्यक्ति दर्द से कराह उठता है। उसका दर्द व तनाव उच्च रक्तचाप के रूप में दिखाई देने लगता है और तब पता चलता है कि व्यक्ति एक तूफान अपने अन्दर दबाए बैठा है। मुझे इसका अनुभव अभी हुआ।
प्रकरण क्रमांक एक:- हुआ कुछ यूं कि मेरे एक स्वर्गीय मित्रा के निवास पर मुझे आना पड़ा। अपरान्ह भोजन के उपरान्त मित्रा की पत्नी और मैं ही निवास पर रह गए और सब सदस्य अपने अपने काम पर चले गए। मित्रा की पत्नी की छवि सेवाभावी मृदुल स्वभाव वाली महिला के रूप में थी। उसने अपनी सास की तन मन से सेवा की थी। वह अपनी सास के साथ एक सहेली की तरह रहती थी। चौपड़ और ताश पत्ते वह खेला करते थे। अपनी सास के लिए उसने सोने की चूडि़यां बनवाई थी। बड़े मधुर संबंध थे सास के साथ उसके।
जो महिला अपनी सास के साथ मधुर संबंध बनाए हुई थी, उसके संबंध पति के साथ तो मधुर होने ही थे। उनकी शादी के बाद मैंने हमेशा उन्हें सानंद देखा। मुझे लगता था कि वेसफल वैवाहिक जीवन का आनंद ले रहे
हैं।
पता नहीं किस संदर्भ में बात चली और उसकी सास पर आकर अटक गई। मित्रा की पत्नी दुःखी हो गई, बोली- भाई साहब अम्माजी को आप जैसा समझते हैं, वे वैसी नहीं थीं। वे बड़े कठोर स्वभाव की थी। उन्होंने मेरी बात कभी नहीं रखी। मैं ही थी जो सहन कर गई। फिर वे अपने पति के संबंध में बोली- आपके मित्रा भी अम्माजी के ही भक्त थे। मैंने क्या क्या नहीं किया परिवार के लिए, तब परिवार चल पाया। फिर पुराने किस्से सुनाते सुनाते रोने लगी। मैं घबरा सा गया।
आपको बता दूं कि उसकी सास की मृत्यु हुए चालीस वर्ष हो गए हैं। उसके पति की मृत्यु को ही दस वर्ष हो चुके हैं। उनके जीवन काल में बहुत कुछ मधुर घटा होगा। उसका स्मरण मेरे मित्रा की पत्नी ने नहीं किया। जो कुछ उसकी इच्छा के विरूद्ध घटित हुआ, वही अब तक डंक मार रहा है। उसी का दर्द वह पाले बैठी है।
प्रकरण क्रमांक 2ः- सामान्य रूप से बच्चे अपने दादा-दादी से प्यार करते हैं किन्तु मुझे अभी अपनी यात्रा में एक ऐसी युवती से भेंट करने का अवसर मिला जो अपनी दादी से घृणा के स्तर तक नाराज थी। अपनी दादी के खान-पान और स्वार्थी स्वभाव को लेकर उसने कई बातें बताई। मैं सुन कर आश्चर्यचकित रह गया। सच बताऊं मैं उसकी दादी को भी जानता हूं। उसे मरे सोलह वर्ष हो गए हैं। वह पुराने विचारों की वृद्धा थी। सरल स्वभाव था किंतु आधुनिकता उसके पास फटकी तक न थी। यह युवती अपनी दादी के निंदा पुराण का बखान कर रस ले रही थी। मुझे बुरा लगा। मैंने उसे पहले समझाया, फिर डांटा भी।
दुःखी होना व्यर्थ:- इन तथ्यों पर विचार कीजिए। जो मर चुका है, उसकी बुराई कर अब आपको क्या मिलेगा। मरने के बाद किसी की निंदा करना मेरी राय में अपराध होना चाहिए क्यांेकि वह व्यक्ति तो सफाई दे नहीं सकता। वैसे किसी की भी निंदा करना कोई अच्छी आदत नहीं है। यह हमारा चरित्रा बताती है। फिर जो कई वर्ष पूर्व मर चुके हैं उनकी स्मृतियों को याद कर दुःखी होना तो निरी मूर्खता ही कहा जाएगा।
मरे हुओं की कोई सुखद स्मृति हो तो याद कीजिए। कोई प्रेरक घटना हो तो सुनाइए। दुःखी होने वाली बातें याद करने का क्या अर्थ। जो आपका रहा है, उसके साथ कई अच्छी बातें हुई होंगी, सुखद क्षण गुजरे होंगे। उन्हें याद कीजिए। ऐसा संभव ही नहीं है कि उनके साथ सुखद क्षण मिले ही नहीं हों जीवन के आनंद के लिए।
समय सबसे बड़ा डॉक्टर है। वह घावों को भर देता है। हम यदि छावों को कुरेदते रहेंगे तो घाव भरेंगे कैसे? वे तो सदा हरे भरे रहेंगे। वास्तव में हम यही करते हैं। हम उन्हें दोहराते हैं, दुःखी होते हैं और अपने दुःखों को सहला सहला कर अपने बड़प्पन को प्रदर्शित करते रहते हैं। हमारे दुःख तनाव के कारण हम ही हैं।
’बीती ताही बिसार दे, आगे की सुधि ले’ एक उत्तम सलाह है। हम अपने दैनिक जीवन में अनेक लोगों के दुर्व्यवहार के शिकार होते हैं, सड़कों पर, कार्यालयों में अजनबियों के साथ। ऐसी अनेक घटनाएं होती हैं जो हमें दुःखी करती हैं किन्तु समय के साथ हम इन घटनाओं को विस्मृति के गड्डे में डाल देते हैं।
यदि हम इन सब घटनाओं को याद रखे तो हमारा जीवन नरक बन जाए। हम इन सबको भूल जाते हैं। ये अजनबियों और परिचितों से संबंधित हैं किन्तु जो अपने है, स्नेही हैं, रिश्तेदार हैं उनकी बातें याद रख कर हम वर्षों दुःखी होते रहंे, इसमें कहां की बुद्धिमानी है।
गड़े मुर्दे मत उखाडि़ए:- जो मर चुके हैं, उनकी बुराइयां उनके साथ चली जाती हैं। उन्हें जमीन में से मत उखाडि़ए, उनको उखाड़ना ही कष्टकर है। आप यदि चाहें तो वहां पुष्पों के बीज डाल दीजिए। समय आने पर वे पुष्पित होंगे। हमारा जीवन भी निरन्तर बढ़ रहा है। हम भी मृत्यु के द्वार की ओर बढ़ रहे हैं। ऐसे समय में निन्दा पुराण का वाचन कर हम अपना चरित्रा स्वभाव क्यों खराब करें। उन घटनाओं को स्मरणकर द्वेष घृणा का संचार अपने अन्दरक्योंहो?
इन घटनाओं के वर्णन से हम अपने परिवार में भी गलत संदेश देते हैं कि जो अपने हैं, रिश्तेदार हैं, वे दुःख देने वाले हैं। उनसे संबंध रखने का कोई अर्थ नहीं है। वे हमारे संकट में काम नहीं आएंगे। मुझे आश्चर्य है ऐसे विचार पढ़े लिखे और सम्पन्न वर्ग में ही है।
अन्त में मुझे अंग्रेज साहित्यकार वाशिंगटन इविग के ये शब्द याद आते हैं, ’कब्र प्रत्येक त्राुटि को दफना देती है, प्रत्येक दोष को ढक देती है और प्रत्येक आक्रोश को मिटा देती है।‘ (
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