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March 28 2024 11:55 PM

जनता कब खुश रही जो आज नाराज है!

Posted at: Jun 24 , 2018 by Dilersamachar 9327

 

कमलेश पांडे

दिलेर समाचार, देश की जनता अपने हुक्मरानों से कभी खुश नहीं रही है, इसलिए मोदी सरकार से भी उसका अप्रसन्न रहना स्वाभाविक है लेकिन कांग्रेस ने हालिया जन आक्रोश रैली में लोगों की नाराजगी का जो सवाल उठाया है, वह कर्नाटक विधानसभा चुनाव समेत अन्य चुनावों के लिए राजनीतिक आक्सीजन पाने की अथक कोशिश भर है, इससे ज्यादा कुछ नहीं क्योंकि उसके नेताओं द्वारा उछाले जा रहे घिसे-पिटे सवालों

पर भी अब सवालिया निशान लगने लगे हैं।

यह ठीक है कि आज भी चुनावी राजनीति का असली झोंका बहाने में रामलीला मैदान ही अव्वल समझा जाता है लेकिन जब तक सरकार की नीतियों के खिलाफ जनाक्रोश नहीं भड़क जाता, तब तक विपक्ष की चिकनी चुपड़ी बातों से लोगों को लुभाया जा सकता है पर सत्ता विरोधी लहर पैदा करने के लिए जिस राजनीतिक चातुर्य की जरूरत होती है, उसका कांग्रेस नेतृत्व में सर्वथा अभाव दिखाई दे रहा है।

फिर इस बात से भी हर कोई वाकिफ है कि राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ विधान सभा चुनाव भी इसी वर्ष के उत्तरार्द्ध में होने हैं और अगले वर्ष के पूर्वार्द्ध में आम चुनाव 2019 भी होना है, इसलिए प्रचंड गर्मी और बारिश से बचते हुए कांग्रेस ने बैशाख महीने में ही अपनी ऊलजलूल बयानबाजी से राजनीतिक तपिश बढ़ा दी है लेकिन जवाबी हमले में सत्तापक्ष भी पीछे नहीं है।

अब कांग्रेस भले ही बीजेपी सरकार पर यह तोहमत मढ़े कि बढ़ती बेरोजगारी, महिलाओं पर अत्याचार और किसानों के मुद्दे पर प्रधानमंत्राी नरेंद्र मोदी चुप हैं। यह भी कहे कि बीते चार सालों में देश को बेरोजगारी और नफरत के सिवाय उन्होंने कुछ नहीं दिया तो यह बात भी समझ में आती है लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का यह कहना कि इन सबसे देश की जनता नाराज है, यह बात किसी के गले नहीं उतरती क्योंकि हर व्यक्ति इस कड़वी सच्चाई से वाकिफ है कि देश की जनता न तो पहले खुश थी और न ही आज नाराज है क्योंकि वह अब इसे अपनी राजनीतिक नियति मान चुकी है। उसे पता है कि वह हर पांच-दस साल में सिर्फ सियासी मुखौटे बदलने को अभिशप्त है लेकिन जनशोषक, जनउत्पीड़क नीतियां तो यथावत ही रहने वाली हैं, क्योंकि इसकी चाबी कहीं और है। शायद नौकरशाही और उद्योगपतियों के स्वार्थपरक गठजोड़ समेत राजनेता भी असहाय हैं सत्ता की अस्थाई प्रकृति के मद्देनजर। यदाकदा इस पीड़ा को बहुतेरे नेता छिपाते भी नहीं हैं।

लगता है कि राहुल गांधी भी कम उम्र में ही इस राजनैतिक भूलभुलैया को भी समझ चुके हैं, तभी तो उत्साही भीड़ के समक्ष उन्होंने सवाल उठाया कि जब सरकार उद्योगपतियों के करोड़ों के कर्ज माफ कर सकती है तो किसानों का कर्ज माफ क्यों नहीं करती? इससे साफ है कि पहले के मुकाबले अब वह सरकार के खिलाफ ज्यादा आक्रामक हुए हैं। साथ ही, वह एक मंजे और सधे हुए राजनेता का परिचय देने में भी सफल हो रहे हैं। शायद इसलिए भी संगठन में भी युवाओं और बुजुर्गों के बीच संतुलन कायम रखने में सफल हुए हैं लेकिन आगे की ऊबड़-खाबड़ राजनैतिक पगडंडियों से भी वो वाकिफ हो चुके हैं।

जन आक्रोश रैली से एक और महत्त्वपूर्ण बात निकली है, वह यह कि राहुल गांधी के हौसले में अब काफी इजाफा हुआ है। उनका यह दृष्टिकोण कि कांग्रेस का कार्यकर्ता ‘शेर का बच्चा’ है, इसको मारो-पीटो पर यह डरने वाला नहीं है, अब आर-पार की लड़ाई की ओर इशारा कर रहा है। शायद इसीलिए उन्होंने 18 साल के कार्यकर्ताओं से लेकर 80 साल के नेताओं तक के सभी कांग्रेसियों को बराबर का सम्मान और आदर देने की बात दुहरायी है।

स्पष्ट है कि भले ही संघ-बीजेपी की तरह उनका मजबूत संगठन नहीं है, लेकिन उनके तेवरों से साफ दिख रहा है कि जब वह अपनी कमजोरियों को समझ चुके हैं तो उसे अपनी मजबूती बनाने में भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे। इसलिए पार्टी कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिए उन्होंने दावा किया है कि अब उनकी पार्टी कर्नाटक, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छतीसगढ़ के साथ आम चुनाव 2019 भी जीतेगी, भले ही वह कई चुनाव हारते आई है हाल के वर्षों में कुछेक उपचुनावों को छोड़कर।

कांग्रेस अध्यक्ष का यह कहना कि सरकार संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर कर रही है, क्योंकि सात दशक में पहली बार सर्वोच्च न्यायालय के चार न्यायाधीशों को अपनी मांग को लेकर मीडिया के माध्यम से जनता के बीच आना पड़ा, सत्य से परे और अनुचित है क्योंकि अब यह साफ हो चुका है कि उन सभी न्यायमूर्तियों की राजनीतिक निष्ठा कांग्रेस से जुड़ी है और अति उत्साह में उन्होंने अपने ‘वास्तविक अभिभावक’ पर ही उंगली उठाई है जो न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। रही बात पीएम मोदी के चीन दौरे के सवाल का तो वह बगैर किसी एजेंडे का जरूर था, लेकिन डोकलाम समेत कई द्विपक्षीय तनावों को कम करने में एक सार्थक भूमिका निभा चुका है, यह उन्हें समझना चाहिए था। चूंकि डोकलाम विवाद के समय चीनी राजदूत से मिलना और उस मुलाकात को छिपाना लोगों के जेहन में आज भी बना हुआ है, इसलिए राहुल को इस पर सवाल उठाने से गुरेज करना चाहिए था। जहां तक रही बात झूठ फैलाने वाली मोदी सरकार की, तो यह कड़वा सच है कि जिस तरह से कांग्रेसी सरकार नई आर्थिक नीति लेकर आई है, कतिपय प्रशासनिक विडम्बनाओं को बढ़ावा दिया है, उसमें अब किसी भी सरकार के पास सच बोलने की ताकत कहां बची है? यह वह खुद समझ रहे होंगे। आलम यह है कि अब बजट की बाजीगरी भी ज्यादा दिन नहीं चलने वाली है।

सर्वाधिक गौर करने वाली बात तो यह है कि राहुल गांधी ने देश का कायाकल्प करने के लिए 60 महीने का वक्त मांगा है ताकि वो भी पीएम बन सकें लेकिन वे शायद यह भूल गए कि ऐसा तो सभी नेता कहते हैं। 2014 से पहले मोदी भी यही कहते थे। 2004 में सोनिया और 2009 में खुद राहुल भी अपनी कांग्रेस पार्टी के लिए ऐसी ही अपील कर चुके हैं, फिर भी लोगों को मिला क्या? इस बात में कोई दो राय नहीं कि इतने बड़े देश का कायाकल्प महज 60 महीने में नहीं किया जा सकता! बावजूद इसके राजनेता दिवास्वप्न दिखाते हैं और किसी न किसी तरह से जनता ही छली जाती है।

बहरहाल, उसी मंच से पूर्व प्रधानमंत्राी मनमोहन सिंह का यह आरोप कि मोदी सरकार जिस रास्ते पर चल रही है, वह लोकतंत्रा के लिए बड़ा खतरा है, संसद नहीं चलने दी जा रही है, अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा रोकी जा रही है, संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर किया जा रहा है आदि, समझ में तो आती है लेकिन दूसरी तरफ जब वो यह कहते हैं कि नीरव मोदी व मेहुल चौकसी जैसे लोग बैंकों के हजारों करोड़ रुपए लेकर विदेश भाग जाते हैं, बैंकों की हालत आज खराब है तो उन पर तरस आता है क्योंकि उनकी सरकार ने कितने घोटाले और गड़बड़झाले किए, शायद वो भूल गए।

यह भी भुलाने की जुर्रत कर रहे हैं कि उनके 10 वर्षीय प्रधानमंत्रित्व काल में जनता इतनी तबाह हो गई कि 2014 में मोदी के अलावा उसे कोई विकल्प नहीं सूझा। शायद इसलिए भी कि कांग्रेस की हालत आज यह हो गई है कि उसके पास न तो कोई नेता है, न नीति है और न ही नीयत है जबकि बीजेपी ने हर वर्ग की भलाई के लिए कार्य किया है, इसलिए किसी भी वर्ग में सरकार के प्रति कोई नाराजगी नहीं है। अब यह जनता पर निर्भर है कि 2014 से अब तक जो राजनैतिक मजदूरी उसने बीजेपी को दी है, उसे आगे भी बरकरार रखती है या फिर कोई कटौती करती है, इंतजार कीजिये।

कमलेश पांडे

देश की जनता अपने हुक्मरानों से कभी खुश नहीं रही है, इसलिए मोदी सरकार से भी उसका अप्रसन्न रहना स्वाभाविक है लेकिन कांग्रेस ने हालिया जन आक्रोश रैली में लोगों की नाराजगी का जो सवाल उठाया है, वह कर्नाटक विधानसभा चुनाव समेत अन्य चुनावों के लिए राजनीतिक आक्सीजन पाने की अथक कोशिश भर है, इससे ज्यादा कुछ नहीं क्योंकि उसके नेताओं द्वारा उछाले जा रहे घिसे-पिटे सवालों

पर भी अब सवालिया निशान लगने लगे हैं।

यह ठीक है कि आज भी चुनावी राजनीति का असली झोंका बहाने में रामलीला मैदान ही अव्वल समझा जाता है लेकिन जब तक सरकार की नीतियों के खिलाफ जनाक्रोश नहीं भड़क जाता, तब तक विपक्ष की चिकनी चुपड़ी बातों से लोगों को लुभाया जा सकता है पर सत्ता विरोधी लहर पैदा करने के लिए जिस राजनीतिक चातुर्य की जरूरत होती है, उसका कांग्रेस नेतृत्व में सर्वथा अभाव दिखाई दे रहा है।

फिर इस बात से भी हर कोई वाकिफ है कि राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ विधान सभा चुनाव भी इसी वर्ष के उत्तरार्द्ध में होने हैं और अगले वर्ष के पूर्वार्द्ध में आम चुनाव 2019 भी होना है, इसलिए प्रचंड गर्मी और बारिश से बचते हुए कांग्रेस ने बैशाख महीने में ही अपनी ऊलजलूल बयानबाजी से राजनीतिक तपिश बढ़ा दी है लेकिन जवाबी हमले में सत्तापक्ष भी पीछे नहीं है।

अब कांग्रेस भले ही बीजेपी सरकार पर यह तोहमत मढ़े कि बढ़ती बेरोजगारी, महिलाओं पर अत्याचार और किसानों के मुद्दे पर प्रधानमंत्राी नरेंद्र मोदी चुप हैं। यह भी कहे कि बीते चार सालों में देश को बेरोजगारी और नफरत के सिवाय उन्होंने कुछ नहीं दिया तो यह बात भी समझ में आती है लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का यह कहना कि इन सबसे देश की जनता नाराज है, यह बात किसी के गले नहीं उतरती क्योंकि हर व्यक्ति इस कड़वी सच्चाई से वाकिफ है कि देश की जनता न तो पहले खुश थी और न ही आज नाराज है क्योंकि वह अब इसे अपनी राजनीतिक नियति मान चुकी है। उसे पता है कि वह हर पांच-दस साल में सिर्फ सियासी मुखौटे बदलने को अभिशप्त है लेकिन जनशोषक, जनउत्पीड़क नीतियां तो यथावत ही रहने वाली हैं, क्योंकि इसकी चाबी कहीं और है। शायद नौकरशाही और उद्योगपतियों के स्वार्थपरक गठजोड़ समेत राजनेता भी असहाय हैं सत्ता की अस्थाई प्रकृति के मद्देनजर। यदाकदा इस पीड़ा को बहुतेरे नेता छिपाते भी नहीं हैं।

लगता है कि राहुल गांधी भी कम उम्र में ही इस राजनैतिक भूलभुलैया को भी समझ चुके हैं, तभी तो उत्साही भीड़ के समक्ष उन्होंने सवाल उठाया कि जब सरकार उद्योगपतियों के करोड़ों के कर्ज माफ कर सकती है तो किसानों का कर्ज माफ क्यों नहीं करती? इससे साफ है कि पहले के मुकाबले अब वह सरकार के खिलाफ ज्यादा आक्रामक हुए हैं। साथ ही, वह एक मंजे और सधे हुए राजनेता का परिचय देने में भी सफल हो रहे हैं। शायद इसलिए भी संगठन में भी युवाओं और बुजुर्गों के बीच संतुलन कायम रखने में सफल हुए हैं लेकिन आगे की ऊबड़-खाबड़ राजनैतिक पगडंडियों से भी वो वाकिफ हो चुके हैं।

जन आक्रोश रैली से एक और महत्त्वपूर्ण बात निकली है, वह यह कि राहुल गांधी के हौसले में अब काफी इजाफा हुआ है। उनका यह दृष्टिकोण कि कांग्रेस का कार्यकर्ता ‘शेर का बच्चा’ है, इसको मारो-पीटो पर यह डरने वाला नहीं है, अब आर-पार की लड़ाई की ओर इशारा कर रहा है। शायद इसीलिए उन्होंने 18 साल के कार्यकर्ताओं से लेकर 80 साल के नेताओं तक के सभी कांग्रेसियों को बराबर का सम्मान और आदर देने की बात दुहरायी है।

स्पष्ट है कि भले ही संघ-बीजेपी की तरह उनका मजबूत संगठन नहीं है, लेकिन उनके तेवरों से साफ दिख रहा है कि जब वह अपनी कमजोरियों को समझ चुके हैं तो उसे अपनी मजबूती बनाने में भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे। इसलिए पार्टी कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिए उन्होंने दावा किया है कि अब उनकी पार्टी कर्नाटक, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छतीसगढ़ के साथ आम चुनाव 2019 भी जीतेगी, भले ही वह कई चुनाव हारते आई है हाल के वर्षों में कुछेक उपचुनावों को छोड़कर।

कांग्रेस अध्यक्ष का यह कहना कि सरकार संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर कर रही है, क्योंकि सात दशक में पहली बार सर्वोच्च न्यायालय के चार न्यायाधीशों को अपनी मांग को लेकर मीडिया के माध्यम से जनता के बीच आना पड़ा, सत्य से परे और अनुचित है क्योंकि अब यह साफ हो चुका है कि उन सभी न्यायमूर्तियों की राजनीतिक निष्ठा कांग्रेस से जुड़ी है और अति उत्साह में उन्होंने अपने ‘वास्तविक अभिभावक’ पर ही उंगली उठाई है जो न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। रही बात पीएम मोदी के चीन दौरे के सवाल का तो वह बगैर किसी एजेंडे का जरूर था, लेकिन डोकलाम समेत कई द्विपक्षीय तनावों को कम करने में एक सार्थक भूमिका निभा चुका है, यह उन्हें समझना चाहिए था। चूंकि डोकलाम विवाद के समय चीनी राजदूत से मिलना और उस मुलाकात को छिपाना लोगों के जेहन में आज भी बना हुआ है, इसलिए राहुल को इस पर सवाल उठाने से गुरेज करना चाहिए था। जहां तक रही बात झूठ फैलाने वाली मोदी सरकार की, तो यह कड़वा सच है कि जिस तरह से कांग्रेसी सरकार नई आर्थिक नीति लेकर आई है, कतिपय प्रशासनिक विडम्बनाओं को बढ़ावा दिया है, उसमें अब किसी भी सरकार के पास सच बोलने की ताकत कहां बची है? यह वह खुद समझ रहे होंगे। आलम यह है कि अब बजट की बाजीगरी भी ज्यादा दिन नहीं चलने वाली है।

सर्वाधिक गौर करने वाली बात तो यह है कि राहुल गांधी ने देश का कायाकल्प करने के लिए 60 महीने का वक्त मांगा है ताकि वो भी पीएम बन सकें लेकिन वे शायद यह भूल गए कि ऐसा तो सभी नेता कहते हैं। 2014 से पहले मोदी भी यही कहते थे। 2004 में सोनिया और 2009 में खुद राहुल भी अपनी कांग्रेस पार्टी के लिए ऐसी ही अपील कर चुके हैं, फिर भी लोगों को मिला क्या? इस बात में कोई दो राय नहीं कि इतने बड़े देश का कायाकल्प महज 60 महीने में नहीं किया जा सकता! बावजूद इसके राजनेता दिवास्वप्न दिखाते हैं और किसी न किसी तरह से जनता ही छली जाती है।

बहरहाल, उसी मंच से पूर्व प्रधानमंत्राी मनमोहन सिंह का यह आरोप कि मोदी सरकार जिस रास्ते पर चल रही है, वह लोकतंत्रा के लिए बड़ा खतरा है, संसद नहीं चलने दी जा रही है, अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा रोकी जा रही है, संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर किया जा रहा है आदि, समझ में तो आती है लेकिन दूसरी तरफ जब वो यह कहते हैं कि नीरव मोदी व मेहुल चौकसी जैसे लोग बैंकों के हजारों करोड़ रुपए लेकर विदेश भाग जाते हैं, बैंकों की हालत आज खराब है तो उन पर तरस आता है क्योंकि उनकी सरकार ने कितने घोटाले और गड़बड़झाले किए, शायद वो भूल गए।

यह भी भुलाने की जुर्रत कर रहे हैं कि उनके 10 वर्षीय प्रधानमंत्रित्व काल में जनता इतनी तबाह हो गई कि 2014 में मोदी के अलावा उसे कोई विकल्प नहीं सूझा। शायद इसलिए भी कि कांग्रेस की हालत आज यह हो गई है कि उसके पास न तो कोई नेता है, न नीति है और न ही नीयत है जबकि बीजेपी ने हर वर्ग की भलाई के लिए कार्य किया है, इसलिए किसी भी वर्ग में सरकार के प्रति कोई नाराजगी नहीं है। अब यह जनता पर निर्भर है कि 2014 से अब तक जो राजनैतिक मजदूरी उसने बीजेपी को दी है, उसे आगे भी बरकरार रखती है या फिर कोई कटौती करती है, इंतजार कीजिये।

ये भी पढ़े: सद्भावना व विश्व बंधुत्व के प्रतीक-स्व. पं. जवाहर लाल नेहरू

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