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कब सुरक्षित होगा रेल का सफर

Posted at: Dec 13 , 2017 by Dilersamachar 9715

दिलरे समाचार, राजेश माहेश्वरी: भारतीय रेल को लगता है किसी की नजर लग गई है। तभी तो आये दिन किसी न किसी रेल हादसे की खबर सुनने को मिलती रहती है। सरकार के तमाम दावों और वादों के बावजूद देश भर में ट्रेन हादसों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। बीते गुरुवार और शुक्रवार को 12 घंटे से भी कम समय में चार ट्रेन दुर्घटनाएं हुईं जिसमें सात लोगों की मौत हो गई और कम से कम 12 लोग घायल हो गए। इनमें से एक दुर्घटना ओडिशा और तीन हादसे उत्तर प्रदेश में हुए। इन चार रेल हादसों ने  एक बार फिर भारतीय रेल नेटवर्क पर रेलवे ट्रैकों (पटरियों) के रूटीन रखरखाव और रेलवे की कार्यप्रणाली को बहस में ला दिया है।

देश में रेल दुर्घटनाएं लगातार बढ़ती ही जा रही हैं। हर बार किसीे हादसे के बाद कुछ कर्मचारियों पर इसका ठीकरा फोड़ कर पूरे मामले की लीपापोती की कवायद शुरू हो जाती है। हादसों के मूल कारणों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। वैसे तो हर वर्ष बजट में रेल मंत्राी रेल सेवाओं में सुधार के लिए बड़े-बड़े पग उठाने के दावे करते हैं परंतु स्वतंत्राता के 70 वर्ष बाद भी रेल दुर्घटनाओं का सिलसिला लगातार जारी है।

रेल सुरक्षा पर काकोदकर समिति की सिफारिशें अब भी फाइलों में धूल फांक रही हैं। तमाम रेल मंत्राी क्षेत्राीय और जातीय समीकरणों का ध्यान रखते हुए हर साल नई ट्रेनें तो चलाते रहे हैं लेकिन रेल की पटरियों का विस्तार उस अनुपात में नहीं हो सका है। नतीजतन पटरियों के रख रखाव के लिए ज्यादा समय नहीं मिल पाता। सवाल पैदा हुआ कि क्या परिचालनगत प्रदर्शन (आपरेशनल परफारमेंस) के लक्ष्यों और ट्रैक रखरखाव के प्रोटोकाल एवं रेलगाडि़यों की सुरक्षा और प्रदर्शन के स्तर के बीच जमीन-आसमान का फर्क है?

रेलवे से बेहतर व्यावसायिक नतीजे देने की अपेक्षाएं बढ़ी हैं। साथ ही इस पर शहरों के बीच परिवहन के साधन होने की ब्रांड छवि को बनाए रखने का भी दबाव है। इन स्थितियों में डीआरएम स्तर के अधिकारी कई बार ट्रैकों में आई गड़बडि़यों या उनकी असुरक्षित स्थिति को छुपाने का खतरा मोल लेने के लिए प्रेरित होते रहते हैं।

भारत में जवाहरलाल नेहरू ने ट्रेनों के आधुनिकीकरण की शुरुआत की थी। उनके बाद के प्रधानमंत्रियों ने रेल उद्योग के विकास, नई तकनीक हासिल करने या आधुनिकीकरण पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रीय पैमाने पर भारत के जर्जर ट्रैक सिस्टम और पुराने पड़ चुके रेलवे पुलों के नवीकरण और मरम्मती के लिए बड़ा निवेश करने का फैसला लिया। बड़े स्तर पर नवीकरण और मरम्मती कार्यों की योजना बनाकर उसे 2002-05 की अवधि के बीच सफलता के साथ अमल में लाया गया लेकिन इस बात को भी एक दशक से ज्यादा का समय बीत चुका है। माल ढुलाई और यात्रियों के बोझ में हुई भारी बढ़ोत्तरी के मद्देनजर देश के ट्रैक नेटवर्क का तत्काल बड़े पैमाने पर पुनरउद्धार किए जाने की जरूरत है। साथ ही जरूरत के मुताबिक ट्रैकों के स्तर को बेहतर किए जाने की भी दरकार है।

काकोदकर समिति ने तत्कालीन रेल मंत्राी दिनेश त्रिवेदी को सौंपी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि रेलवे के आधारभूत ढांचे पर बोझ बहुत बढ़ गया है। इसकी वजह से ट्रैफिक के नियंत्राण के लिए पैसा और समय दोनों नहीं मिल पाता है। उसका कहना था कि रेलवे की सुरक्षा को मजबूत करने के लिए एक रेलवे सुरक्षा प्राधिकरण का गठन कर सुरक्षा आयुक्त को उसी के तहत रखा जाना चाहिए। समिति ने प्रशासनिक ढांचे में सुधार के लिए अगले पांच वर्षों में 1.40 लाख करोड़ के निवेश की सिफारिश की थी। उस रिपोर्ट में कहा गया था कि राजधानी और शताब्दी एक्सप्रेस के अलावा बाकी तमाम ट्रेनों में ऐसे कोचों का इस्तेमाल किया जा रहा है जो 50 किलोमीटर प्रति घंटे की गतिसीमा के लिए बने हैं।

काकोदकर और पित्रौदा समितियों ने रेलवे के आईसीएफ कोचों को आधुनिकतम एलएचबी कोचों से बदलने की भी सिफारिश की थी। एलएचबी कोच हादसे की स्थिति में एक-दूसरे पर नहीं चढ़ते। इससे जान का नुकसान कम होता है लेकिन एलएचबी कोचों की भारी कमी को ध्यान में रखते हुए फिलहाल इसमें पांच साल या उससे ज्यादा का समय लग सकता है। फिलहाल देश में महज सात हजार एलएचबी कोच हैं जबकि आईसीएफ कोचों की तादाद 50 हजार से ऊपर है। वर्ष 2019 तक आईसीएफ कोचों का उत्पादन जारी रहेगा यानी आईसीएफ और एलएचबी कोचों का फासला कम करने में अभी और ज्यादा वक्त लगने का अनुमान है।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड्स ब्यूरो के मुताबिक साल 2014 में रेल दुर्घटनाओं में करीब 28,000 लोगों ने अपनी जान गंवाई। जरा कल्पना करिए अमरीका में पिछले 10 सालों में महज 68 लोगों ने 20 रेल दुर्घटनाओं के दौरान अपनी जान गंवाई है जबकि हमारे यहां महज एक साल में 28,000 लोग,  हालांकि इनमें से करीब 18,000 लोग ट्रेन से गिरने, पटरी पार करने या ऐसी ही अपनी लापरवाहियों से मारे गए हैं मगर इसके बाद भी बड़ी संख्या बचती है, जिन लोगों ने रेल दुर्घटनाओं के चलते अपनी जान गंवाई। आंकड़े अपनी कहानी खुद कहते हैं. केंद्र सरकार ने बीते जून में लोकसभा को बताया था कि वर्ष 2012 से 2017 यानी पांच वर्षों के दौरान देश में कुल 1011 रेल हादसे हुए हैं। अकेले इसी साल अब तक आठ बड़े रेल हादसे हो चुके हैं।

भारत में 53 प्रतिशत से ज्यादा रेल दुर्घटनाएं मानवीय भूल के चलते होती हैं। साल 2014-15 में जो 131 रेल हादसे हुए और इनमें 168 लोग मारे गए, उनमें से 48 प्रतिशत लोगों ने डिरेलमेंट के चलते अपनी जान गंवाई और पटरी से ये ज्यादातर ट्रेनें इंसानी लापरवाही के चलते नीचे उतरी। साल 2016-17 में हमारे यहां 117 बड़े ट्रेन हादसे हुए तो साल 2017-18 में अभी तक 104 दुर्घटनाएं हो चुकी हैं। सबसे चिंताजनक बात यह है कि अब 60 प्रतिशत तक ये दुर्घटनाएं ट्रेनों के पटरी से उतर जाने के कारण हो रही हैं।

सवाल है इसकी वजह क्या है। इसमें कोई शक नहीं कि एक बड़ी वजह तो चरमराता रेलवे ट्रैक है तो दूसरी वजह बड़े पैमाने पर अपनी ड्यूटी के प्रति रेलवे कर्मचारियों में बढ़ती गैर-जिम्मेदारी और उदासीनता है। इसी के कारण दुर्घटनाएं बढ़ रही हैं। गौरतलब है कि साल 1956 से 1966 के बीच 1,201 रेल हादसों में 962 दुर्घटनाएं ट्रेनों के पटरी से उतरने के कारण हुई थीं। तब माना गया था कि दुनिया में सबसे अयोग्य भारतीय रेलवे के कर्मचारी हैं और रेलवे ने अपने प्रशिक्षण कार्यक्रम में आमूल-चूल बदलाव किया था लेकिन 2017 में भी कोई बहुत ज्यादा सुधार नहीं दिख रहा।

भारतीय रेलवे की एक आंतरिक मूल्यांकन समिति ने साल  2015 में अपने एक मूल्यांकन में कहा था कि 4,500 किलोमीटर रेलवे ट्रैक को तुरंत दुरुस्त करने की जरूरत है लेकिन फंड की कमी के कारण यह संभव नहीं हुआ। अब इस हालत में पहुंच गए ट्रैक की लम्बाई 6000 किलोमीटर से ज्यादा है। भारतीय ट्रैक में लगा इस्पात अभी भी उस कैटेगरी का है जो गर्मी में फैलता है और सर्दी में सिकुड़ता है। यह समस्या भी भारतीय रेलवे के लिए बहुत बड़ी समस्या है। साल 2014 में 145 और इस साल करीब 136 ट्रैक संबंधी गड़बडि़यां इस किस्म की पाई गईं। रेलवे की तरफ से विंटर पैट्रोलिंग के बावजूद तमाम ऐसी गड़बडि़यां पकड़ में नहीं आतीं और दुर्घटनाएं हो जाती हैं।

रेलगाडि़यों के ट्रैक से उतरने के पीछे एक बड़ा कारण यातायात में बेइंतहा बढ़ोत्तरी और बुनियादी ढांचे में निवेश की भारी कमी हैं। कई रेलखंडों में तो पटरियों की क्षमता से 220 फीसदी तक ज्यादा ट्रेनों  को चलाया जा रहा है। असल में भारतीय रेलवे के कुल 1,219 रेलखंडों में से 40 फीसदी से ज्यादा पर ट्रेनों का जरूरत से ज्यादा बोझ है। 90 फीसद से ज्यादा यातायात तकनीकी रूप से उचित नहीं हैं। कैग ने अपनी रिपोर्ट में ओवरलोडेड मालगाडि़यों के परिचालन पर आपत्ति जाहिर की थी। उसने ओवरलोडेड मालगाडि़यों पर प्रतिबंध लगाने का सुझाव भी दिया था लेकिन कमाई के चक्कर में रेलवे कैग की अनुशंसा की अनदेखी कर रहा है। रेल नियमावली के मुताबिक मौजूदा ट्रैक पर 4800-5000 टन भार की मालगाडि़यां चलाई जा सकती हैं जबकि पिछले दशक से इन पर 5200 से 5500 टन की ओवरलोडेड मालगाडि़यां चलाई जा रही हैं। इससे ट्रैक पर लगातार बोझ बढ़ रहा है।

बीते कुछ समय में रेलवे में लगातार हादसों और जानमाल के भारी नुकसान के बाद सुरेश प्रभु ने इस्तीफा दे दिया था जिसके बाद पीयूष गोयल को रेलमंत्राी बनाया गया था हालांकि नए रेल मंत्राी के आने के बाद रेलवे की किस्मत बदलती नहीं दिख रही है और हादसे लगातार हो रहे हैं। सरकार को तत्काल रेल यात्रा को सुरक्षित बनाने के जरूरी उपाय करने चाहिए जिससे रेल यात्रा शुभ और सुरक्षित हो पाये।

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