दिलेर समाचार, आधुनिकता के नाम पर फैलती संवेदनहीनता के इस दौर में मंदिर की तुलना उस चाबी के रूप में की जाने लगी है जिसका सीधा संबंध ईश्वररूपी ताले से होता है किंतु अनेक समानताओं को लेकर मंदिर जाने वाले भक्तगण इस तथ्य से अनभिज्ञ होते है कि कामनाओं की पूर्ति का केन्द्र मन्दिर ही क्यूं? क्या मंदिर के दर्शन मात्रा या उसमें स्थापित ईश्वर की प्रतीक मूर्तियों के आगे सिर झुकाने से उनकी कामना पूर्ण हो जायेगी।
उस सर्वत्रा व्याप्त माने जानेवाले ईश्वर को बांधने का यह मन्दिर रूपी प्रयास क्यूं? न जाने ऐसे कितने सवालों में घिरा हमारे समाज का युवा वर्ग इस बिना आधार की श्रद्धा को आहिस्ता-आहिस्ता त्यागता चला जा रहा है। ऐसी बात नहीं कि यह वर्ग अपने संस्कारों को भूल चुका है बल्कि सच्चाई तो यह है कि उन्हें आधार चाहिए, तथ्य चाहिए ताकि उन्हें मंदिर जाने में गर्व महसूस हो न कि शर्मिंदगी भरे एहसास के बीच उन्हें जीना पड़े कि वे कभी मन्दिर पर भी श्रद्धा रखते थे?
वस्तुतः मंदिर मनुष्य की बौद्धिक जागृति का प्रतीक है जो उसे पशु पक्षी समूह से अलग एवं श्रेष्ठ दर्जा प्रदान करता है। इस संरचना के पीछे के तथ्यपूर्ण तर्क को बहुत कम लोग ही जानते हैं। वातावरण में कई तरंगंे कई रेडियो वेव्ज गुजर रही हैं किंतु बिना रिसीवर के उनको पकड़ना आसान नहीं है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार रेडियो के बिना आकाशवाणी केन्द्रों से प्रसारित वेव्ज कोई मायने नहीं रखती और यदि रेडियो रूपी रिसीवर आपके पास उपलब्ध हो तो इस छोटे से यंत्रा से एक स्टेशन पर संगीत, दूसरे स्टेशन पर न्यूज तथा तीसरे पर नाटक अथवा जो हमें पसंद हो, सुन सकते हैं किंतु यदि कोई व्यक्ति इसे तोड़कर दृश्य देखने की इच्छा करे और इसे तोड़ दे तो यंत्रों के सिवाय कुछ नहीं मिलेगा।
कारण स्पष्ट है कि यदि आप दृश्य देखना चाहंे तो उसका रिसीवर टेलीविजन है न कि रेडियो। ठीक उसी प्रकार परमात्मा भी प्रत्येक जगह व्याप्त माना गया है लेकिन उससे तालमेल हर स्थान पर उसके साथ सही बैठे, इसके लिए उपयुक्त रिसीवर का होना आवश्यक है। ऐसी स्थिति में मंदिर एक ‘रिसेप्टिव इंस्टूªमेंट‘ जैसा ही है जिसकी बनावट आकाश की बनावट गोल गुम्बद की तरह है जिसमें वातावरण की सघनता इतनी है कि प्रत्येक किया गया उच्चारण अन्दर गुंजित होता हुआ पुनः मंदिर के धरातल में ही आकर (लौटकर) विलीन होता है। गौर तलब तथ्य यह है कि मंदिर का गुम्बद जितना बड़ा होगा, प्रतिध्वनियां उतनी ही सरलता से वापस लौटती हैं। यह लौटने की क्रिया एक ‘सर्किल‘ का निर्माण करती है जिससे व्यक्ति स्वाभाविक आनन्द की अनुभूति महसूस करता है।
वस्तुतः ध्वनि विद्युत का सूक्ष्म रूप है। यही वजह है कि हमारे शास्त्रा व धार्मिक ग्रन्थ शब्द को ‘ब्रह्म‘ कहते हैं। किसी भी रूप में यदि मंदिरों में सामूहिक रूप से ओम शब्द उच्चारित हो तो उसकी प्रतिध्वनियां शरीर में एक विशेष प्रकार की तरंगों को उत्पन्न करती हैं जिससे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता में क्रान्तिकारी परिवर्तन आता है। स्वास्थ्य और अस्वस्थता ध्वनि की विशेष तरंगों पर निर्भर करते हैं जिसकी झलक प्राचीन ऋषि मुनियों के स्वास्थ्य व शरीर की प्रतिरोधक क्षमता के संबंध में मिलती है। वर्षों की तपस्या, भोजन त्यागना व बिना वैद्य के स्वास्थ्यपूर्ण तपस्या पूर्ण करना सचमुच एक आश्चर्यजनक विषय है लेकिन यदि ध्यानपूर्वक देखा जाये तो उन्होंने तपस्या के लिए मन्दिरनुमा गुफा या कंदरा ही चुनी जिसमें शब्द और कोण का विशेष महत्त्व है।
वैदिक दृष्टिकोण आज भी इस बात को स्पष्ट करता है कि शब्द बोलने और लिखने का उतना महत्त्व नहीं जितना विशेष ध्वनि शब्दों की बारीक संवेदनाओं का है जो समुचित उच्चारण के अभाव में अपना अस्तित्व खो देती हैं जिसके फलस्वरूप वैदिक मंत्रा भी प्रभावविहीन होते जा रहे हैं लेकिन यह भी सच है कि कभी ये अत्यधिक प्रभावशाली हुआ करते थे क्योंकि उच्चारणकर्ता न केवल मंत्रा बल्कि जहां इनका उच्चारण हो, वहां की स्थिति को भी मद्देनजर रखकर ही उच्चारण करते थे।
वस्तुतः मन्दिर एक चाबी नहीं बल्कि उन स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के निदान का भी केन्द्र है जिनकी ओर हमारा ध्यान जाता ही नहीं। बौद्धिक जागृति का प्रतीक बनी ये मंदिर रूपी इमारतें आज भले ही अपनी आवश्यकता का अहसास नहीं करवा पा रही हों लेकिन कल को जरूर इस तथ्य की ओर ध्यान हमें देना ही पड़ेगा कि इनका अस्तित्व अखिर किस बात की ओर इंगित करता है।
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