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हम भूख बर्दाश्त कर सकते हैं, फिट नहीं

Posted at: Jun 21 , 2018 by Dilersamachar 9716

उबैद उल्लाह नासिर

 दिलेर समाचार, हालिया उप चुनाव चूँकि देश के विभिन्न राज्यों में हुए थे इस लिए इनके परिणामों को देश की जनता का मूड समझने का पैमाना मान लेना गलत नहीं होगा। इसके कुछ महीनों बाद ही  मध्य प्रदेश, छत्तीस गढ़ और राजस्थान विधान सभा के चुनाव होने हैं जिन पर इन उप चुनावों का सीधा असर तो पडे़गा ही इसके बाद अर्थात अगले साल के उप चुनाव की बानगी भी इन चुनावों से देखी जा सकती है। गुजरात, कर्नाटक के बाद अब जिन तीन राज्यों में विधान सभा चुनाव होने वाले हैं, उन सब में क्षेत्राीय पार्टियों का कोई बहुत प्रभाव नहीं है और मुकाबला दोनों राष्ट्रीय पार्टियों में सीधा होगा।

गुजरात में यद्यपि बीजेपी अपना सब से मजबूत किला बचा लेने में सफल रही लेकिन इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद हुए इस पहले विधान सभा चुनाव में बीजेपी को दांतों पसीने आ गए थे और वह बाईस बरसों में सब से कम विधायकों के बल पर सरकार बना सकी। कर्नाटक में कांग्रेस को सरकार विरोधी रुझान का सामना करना पड़ा और वह विधायकों की संख्या के मामले में बीजेपी से पिछड़ गयी लेकिन वोट प्रतिशत और कुल वोटों के मुकाबले में उस से आगे रही। यहाँ बीजेपी ने राज भवन की सहायता से सब से बड़ी पार्टी होने के बिना पर पहले सरकार बना तो ली लेकिन गोवा, मणिपुर आदि के कांडों से सबक लेते हुए कांग्रेस ने अपने कार्ड बड़ी होशियारी और बड़ी फुर्ती से चल कर तीन नम्बर वाली पार्टी से समझौता करके और उस से सत्ता साझी कर के बीजेपी का न केवल खेल बिगाड़ दिया बल्कि उसे अच्छा खासा बदनाम भी कर दिया। बीजेपी को यहाँ सियासी ही नहीं नैतिक हार का भी सामना करना पड़ा। जाहिर है इन सफलताओं से कांग्रेस के मुर्दा तन में नई जान पड़ गयी और उसके कार्यकर्ताओं में एक नए जोश का संचार हुआ है। अब वे मध्य प्रदेश, छत्तीस गढ़ और राजस्थान में उस से दो दो हाथ करने को बेताब दिख रहे हैं।

वैसे तो देश भर में हुए इन उप चुनावों में बीजेपी टोटल 11 सीटों में से केवल एक सीट ही जीत सकी है लेकिन उसको सब से बड़ी हार का सामना उत्तर प्रदेश में करना पड़ा। गोरखपुर में मुख्य मंत्राी और फूलपुर में उप मुख्यमंत्राी की सीट हारने के बाद बीजेपी किसी भी कीमत पर कैराना की सीट हारने को तैयार नहीं थी। इसके लिए उसने कोई कसर भी नहीं छोड़ी। स्व हुकुम सिंह के देहांत से खाली हुई इस सीट पर उनकी बेटी मृगांका सिंह को उम्मीदवार बना कर सहानुभूति बटोरने की भी कोशिश की।

उभर रहे हिन्दू हृदय सम्राट उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्राी योगी आदित्य नाथ ने खुद प्रचार की कमान सम्भाली और अपनी फितरत के अनुसार जिन्नाह बनाम गन्ना मुद्दा खड़ा किया। हद तो यह हो गयी कि पोलिंग से केवल एक दिन पहले जब चुनाव प्रचार खत्म हो गया था, बगल के बागपत में एक सरकारी प्रोग्राम का आयोजन रखा गया और प्रधानमंत्राी मोदी का नौ किलो मीटर लम्बा रोड शो कराया गया लेकिन यह सारी तिकड़म बाजी धरी की धरी रह गयी और संयुक्त विपक्ष की उम्मीदवार तबस्सुम हसन ने बीजेपी के उम्मीदवार को 44 हजार से अधिक वोटों से हराया।

इस सियासी हार जीत से इतर इस चुनाव में विगत कई बरसों से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जो समाजी ताना बाना बिगड़ गया था और जिस प्रकार जाटांे और मुसलमानों में दूरी फैल गयी थी जिसे पैदा करने और बढ़ाने में बीजेपी ने बड़ी मेहनत भी की थी, वह समाप्त हो गयी। इस से पहले कोई सोच सकता था कि चिलचिलाती धूप में रोजा रखे मुस्लिम वोटरों को लाइन में आगे खड़ा जाट वोटर यह कह के पहले वोट डाल लेने देगा कि तुम्हारा रोजा है, तुम पहले वोट दे लो। हम बाद में दे देंगे।

आम तौर से चुनावों में समाजी दूरियां बढ़ जाती हैं मगर इस चुनाव में यह दूरी कम हुई। कहा जा सकता है कि इस चुनाव में राजा महेंद्र प्रताप सिंह और चौधरी चरण सिंह की विरासत वापस आ गयी जिसे वापस लाने में अन्य बातों के अलावा किसानों विशेषकर गन्ना किसानों की तबाही ने विशेष किरदार अदा किया। साथ ही अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी की गाँव गाँव जा कर इस समाजी ताने बाने को बनाने की मेहनत से भी इंकार नहीं किया जा सकता। जाटों को जयंत चौधरी में चौधरी चरण सिंह की तस्वीर दिखाई देती है। यह इमेज चौधरी साहब के बेटे अजित सिंह नहीं बना पाए थे।

वैसे तो कैराना में बीजेपी की हार और गठबंधन उम्मीदवार की सफलता से बीजेपी के खिलाफ एक महागठबंधन की आवश्यकता और मजबूत हुई और यह साफ हो गया है कि संयुक्त विपक्ष ही बीजेपी को हरा सकता है लेकिन कैराना की इस जीत के दूसरे पहलू पर भी नजर डालने की जरूरत है। संयुक्त विपक्ष की उम्मीदवार बीजेपी को केवल 45 हजार से भी कम वोटों से ही हरा सकी। यह कोई बहुत बड़ी जीत नहीं है। अंतिम समय में अगर तबस्सुम हसन के परिवार के ही कंवर हसन ने मैदान से हट जाने का फैसला ना किया होता तो शायद यह जीत सम्भव भी न होती। इसी तरह नूरपुर विधानसभा सीट पर समाजवादी पार्टी के नईमुल हसन केवल साढ़े चार हजार वोटों से जीते। आम चुनाव में बीजेपी के लिए यह दूरी पाटना कोई मुश्किल काम नहीं होगा, इसलिए गठबंधन को अपनी बढ़त बनाये रखने के लिए समाजी स्तर पर कड़ी और सतत मेहनत करती रहनी होगी।

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में शानदार जीत के एक साल बाद और आम चुनाव से एक साल पहले उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में जहां से बीजेपी ने विगत आम चुनाव में अस्सी में से 73 सीटें जीती थीं, वहां लगातार चार उप चुनाव हारने से बीजेपी के खेमे में खलबली मचना लाजमी है। बीजेपी किसी भी कीमत पर आम चुनाव में अपनी पिछली सफलता दोहराने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेगी। इसके लिए उसके तरकश में तीरों की कमी नहीं है। वह आर्थिक स्तर पर गन्ना किसानों के भुगतान, किसानांे की कर्ज माफी आदि जैसे कदम भी उठा सकती है लेकिन उसकी प्राथमिकता उस समाजी ताने बाने को बिगाड़ने की होगी  जिसके चलते जाट वोटरों ने मुस्लिम वोटरों को पहले वोट देने दिया था।

बीजेपी इस बात को अच्छी तरह समझती है कि भावनात्मक मुद्दों पर ठोस मुद्दों से ज्यादा वोट मिलते हैं। इसी के तहत जीत के तुरंत बाद कथित तौर से उसके आईटी सेल से यह फोटो जारी हुआ था जिसमंे तबस्सुम हसन को यह कहते दिखाया गया है कि यह अल्लाह की जीत और राम की हार है या वह फोटो जिसमंे एक हिन्दू की चोटियां काटते हुए दिखाया गया है। वह और उग्र हिंदुत्व को अपना हथियार बना सकती है क्योंकि इसके अलावा और कोई राम बाण नुस्खा उसके पास है नहीं। इसके अलावा वह गठबंधन में फूट डालने की भी पूरी कोशश करेगी, इसके लिए साम दाम दंड भेद सभी हथकंडे अपनाएगी।

संयुक्त विपक्ष को जहां अपना गठबंधन मजबूत करना होगा, वहीं समाजी ताने बाने को मजबूत बनाये रखने में भी पूरी ताकत झोंकनी होगी। चुनाव आते जाते रहेंगे, हार जीत होती रहेगी लेकिन इस समय देश की भावनात्मक एकता को बचाना ही सब का राष्ट्रीय कर्तव्य है क्योंकि हम भूख सह सकते हैं, फूट नहीं।

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