राजनीतिक विशेषज्ञों की मानें तो फिलहाल सबसे बड़ा टारगेट कांग्रेस का यह ही कि वह बीजेपी को सरकार बनाने से रोके. चाहे उसके लिए फिर उन्हें क्षेत्रीय पार्टियों से ही क्यों न गठबंधन करना पड़े! इसमें कोई दो राय नहीं कि 2019 में भी भी यहीं कार्ड कार्ड खेल सकती है जहां बीजेपी का सामना करने के लिए कांग्रेस अभी क्षेत्रीय पार्टियों को एक साथ लाएगी. यहीं कारण है कि कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण में सभी क्षेत्रीय दलों को न्योता दिया गया है.
कल बहुमत परिक्षण से पहले येदुरप्पा ने भावुक भाषण के बाद इस्तीफा दे दिया था, इससे राज्य के राजनीतिक अटकलें और तेज़ कर दी है और इस भाषण के कई मायने निकाले जा रहे हैं. येदुरप्पा की गद्दी चले जाने के बाद ऐसा लगता है कि फिर एक बार लिंगायत बनाम वोक्कालिगा की लड़ाई शुरू हो गयी है. लोक सभा चुनाव से पहले, इस साल के अंत में और अगले साल देश के कई राज्यों में चुनाव होने वाले हैं जहां कांग्रेस के पास कई राज्यों में सरकार बनाने का मौका है. लेकिन अगर कर्नाटक की बात की जाए तो सूबे में जेडीएस के साथ जाने का कांग्रेस को नुकसान भी उठाना पड़ सकता है क्योंकि लिंगायत वोट पार्टी से दूर हो सकते हैं.
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बता दे कि येदुरप्पा खुद भी लिंगायत समुदाय से आते है. जानकारों का कहना है कि अगर लिंगायत वोटों का धुव्रीकरण होता है तो बीजेपी को इसका सबसे ज्यादा फायदा होगा. न सिर्फ लोक सभा चुनाव में बल्कि कर्नाटक में जब भी चुनाव हो तब. येदुरप्पा सूबे में सबसे बड़े लिंगायत नेता माने जाते हैं और बीजेपी के लिए कर्नाटक में सबसे बड़े नेता भी हैं. कहा जाता है कि लिंगायत वोट राज्य की गद्दी तय करते हैं. कर्नाटक में 19 फीसदी लिंगायत जनता है. लिंगायत पर काफी कुछ निर्भर करता है. जबकि वोक्कालिगा 16फीसदी है. वोक्कालिगा समुदाय मैसूर कर्नाटक क्षेत्र में ज्यादा है जबकि लिंगायत समुदाय बाकी क्षेत्रों में फैला हुआ है. येदुरप्पा के इस्तीफे के बाद लिंगायत समुदाय जो कि पहले से बीजेपी का ट्रेडिशनल वोट बैंक रहा है वह एक जुट हो सकता है.
इतना ही नहीं बाकी समुदायों में भी सहानुभूति की लहर देखि जा सकती है. ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि बीजेपी यह बाज़ी हार कर भी जीतती नज़र आ रही है क्योंकि 2019 में सहानुभूति और लिंगायत फैक्टर बीजेपी के हक़ में जा सकता है.
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