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सवाल न्यायपालिका की स्वतंत्रता, गरिमा व मर्यादा का

Posted at: May 13 , 2019 by Dilersamachar 11784

गौतम चौधरी

देश के तीन सर्वाधिक ताकतवर लोगों में से एक सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ने अपने ऊपर लगे आरोप को न्यायालय की स्वतंत्राता के साथ जोड़ दिया है। प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने अपने खिलाफ लगाए गए यौन उत्पीड़न के आरोपों को ‘अविश्वसनीय’ बताते हुए बीते शनिवार को सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की अप्रत्याशित सुनवाई की और कहा कि इसके पीछे एक बड़ी साजिश का हाथ है। उन्होंने कहा कि वह इन आरोपों का खंडन करने के लिए भी इतना नीचे नहीं गिरेंगे।

प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोप सुर्खियों में आने के बाद जल्दबाजी में सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में संयम बरतने और जिम्मेदारी से काम करने का मुद्दा मीडिया के विवेक पर छोड़ दिया ताकि न्यायपालिका की स्वतंत्राता प्रभावित नहीं हो। प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना की विशेष पीठ ने करीब 30 मिनट तक इस मामले की सुनवाई की। इस मामले में शीर्ष अदालत ने कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्राता को बहुत ही गंभीर खतरा है और प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ बेशर्मी के साथ यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए गए हैं क्योंकि कुछ ‘बड़ी ताकत’ प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय को ‘निष्क्रिय’ करना चाहती हैं।

इस मामले की सुनवाई करने वाली न्यायालय की पीठ जो कह रही है, वह वाकई में सही है? यह सवाल आज हर जिम्मेदार नागरिक के मन में है। यह लोकतांत्रिक मूल्यों पर चलने वाला देश है। यहां हर संवैधानिक इकाइयां अपने आप में स्वतंत्रा है। न्यायमूर्ति रंजन गोगोई इतने ताकतवर आदमी हैं कि प्रोटोकॉल तोड़ कर भारत के प्रधानमंत्राी उनसे मिलने उनके कक्ष में जाते हैं। ऐसे में माननीय न्यायालय का यह कहना कि उनके खिलाफ साजिश हो रही है, कई गंभीर प्रश्न खड़े करता है।

न्यायमूर्ति गोगोई के ऊपर किसने आरोप लगाया, मामला क्या है उसपर ज्यादा चर्चा करने की जरूरत नहीं है लेकिन इस मामले में इस बात पर तो चर्चा होनी ही चाहिए कि आखिर न्यायमूर्ति गोगोई पर लगे आरोप न्यायालय गरिमा को सचमुच ठेस पहुंचा रहे हैं?

कायदे से इस देश में हर एक व्यक्ति समान है। कुछ महत्त्वपूर्ण लोगों को कुछ विशेष संवैधानिक अधिकार दिए गए हैं लेकिन वह अधिकार उनके व्यक्तिगत उपयोग के लिए नहीं हैं। वह अधिकार उनके संस्थागत उपयोग के लिए हैं। व्यक्तिगत मामले में वे उसी तरह हैं जिस तरह इस देश की एक आम जनता है। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय की पीठ के द्वारा कही गई बात कितनी तर्कसंगत है, यह खुद न्यायालय को ही तय करना होगा। दरअसल, खुद उच्चतम न्यायालय ने एक मामले में निजी और संस्थागत आरोपों को परिभाषित किया था। फौजदारी कानूनी मामले के जानकार अधिवक्ता धीरज कुमार ने बताया कि ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार के एक मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्ण पीठ ने कहा था कि महिला के आरोप मामले में पहले एफआईआर दर्ज होगी फिर जांच की प्रक्रिया प्रारंभ होगी लेकिन संवैधानिक पद पर बैठे लोगों को इस मामले में थोड़ी रियायत दी गई है मसलन ऐसे मामले में संवैधानिक पद पर बैठे लोगों को अपने पद की गरिमा का ख्याल खुद रखना होता है।

यह मामला 2016 का बताया जा रहा है। मामले में किसी प्रकार की कोई एफआईआर दर्ज नहीं हुई है। मामला तब सामने आया जब कुछ समाचार माध्यमों ने मामले को उठाया। इससे पहले यह मामला सार्वजनिक नजरों से दूर था। कायदे से तो इस मामले में आरोप लगते ही कोर्ट को स्वतः संज्ञान लेना चाहिए था लेकिन देर हुई और इस देरी के कारण कई सवाल खड़े हुए।

दूसरी बात यह है कि जब न्यायपालिका के सर्वोच्च अधिकारी पर आरोप लगे हैं तो जांच होनी चाहिए। जांच के बाद ही यह तय हो पाएगा कि आरोप सही है या गलत। जिस प्रकार कोई उच्चस्थ प्रशासनिक अधिकारी या फिर लोक प्रतिनिधि के मामले में कार्रवाई होती है, न्यापालिका पर भी वही नियम लागू होती है। न्यायमूर्ति गोगोई को भी आरोप के साथ ही अपने पद की गरिमा के अनुकूल व्यवहार करना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में समाचार माध्यमों को संयम बरतने की नसीहत दी है। निस्संदेह ऐसे संवेदनशील मामलों पर समाचार माध्यम को संयम बरतना चाहिए लेकिन यही बात खुद न्यायपालिका पर भी लागू होता है। न्यायमूर्ति गोगोई के मामले में दो ऐसे मौके आए जब खुद न्यायपालिका ने मीडिया को ट्रायल के लिए उकसाया। पहला मौका जब चार जजों के साथ वे अपने सीनियर, न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के खिलाफ रोस्टर को लेकर मोर्चा खोला था और दूसरा मौका तब आया जब उन्होंने अपने निजी मामले पर सार्वजनिक रूप से मीडिया पर निशाना साधा।

ऐसे में वे मीडिया से संयम की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं। वैसे सच पूछिए तो इस मामले में मीडिया लगातार संयम बनाए हुए है। वैसे भी कोर्ट के मामले में कई प्रकार की वैधानिकता के कारण मीडिया संयम में ही रहती है। फिर ऐसे संजीदा मामलों में मीडिया को डर भी होता है। इसलिए मीडिया को बार-बार संयमित और विवेकपूर्णता की नसीहत देने वाले न्यायालय को मीडिया नहीं, खुद को संयमित करना चाहिए। अपने विवेक के आधार मीडिया सतही ही सही लेकिन देश में एक सजग सरोकार का परिचय दिया है लेकिन जब जजों ने अपने सीनियर पर आरोप लगाए तो फिर वहां गरिमा खंडित हुई कि नहीं, यह सवाल भी न्यायपालिका को खुद अपने आप से पूछना चाहिए। ऐसी परिस्थिति में मीडिया को अपनी भूमिका निभाने के लिए बाध्य तो होना पड़ता है।

सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह देश अपनी लोकतांत्रिक संस्थाओं की इज्जत करना जानता है। न्यायपालिका देश की तीन महत्त्वपूर्ण संवैधानिक इकाइयों में से एक है। उसकी गरिमा और मर्यादा पर आक्रमण देश की संप्रभुता पर आक्रमण माना जाता है। न्यायमूर्ति गोगोई संस्था के प्रधान हैं लेकिन उनके ऊपर जो आरोप लगे हैं वह निजी तौर पर लगे हैं और मामले को निजी तौर पर ही लिया जाना चाहिए। जब आरोप लगा है तो जांच होनी चाहिए और जांच में फिर आंच किस बात की। जब हमारे न्यायमूर्ति पाक-साफ हैं तो उन्हें डरना नहीं चाहिए और इस मामले में जांच की स्वतंत्राता पर सवाल न खड़े हों इसका ध्यान भी उन्हें खुद रखना चाहिए।

सबसे अहम बात यह है कि जब से केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार बनी है तब से लगातार यह सुनने को मिल रहा है कि देश की फलां संवैधानिक इकाई खतरे में पड़ गई है। कभी भारतीय रिजर्व बैंक पर तो कभी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के बारे में खबरें छपती रही हैं। एक बार तो न्यायमूर्ति गोगोई खुद कुछ जजों के साथ मीडिया के सामने मुखातिब हो गए थे और न्यायपालिका की स्वतंत्राता पर सवाल खड़े किए लेकिन बाद में उन्होंने जिस संस्था पर आरोप लगाए, उसी संस्था के प्रधान नियुक्त हुए। इसलिए संजीदगी से न्यायपालिका को भी अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। यदि उनके यहां किसी प्रकार की कोई गड़बड़ी है तो उन्हें खुद उसे ठीक करने की कोशिश करनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो आने वाले समय में देश की संवैधानिक इकाइयों की स्वतंत्राता पर सवाल खड़े होते रहेंगे।

हालांकि इस मामले में आरोप लगाने वाली महिला की भावना पर भी ध्यान देने की जरूरत है। खबरों के अनुसार मामला 2016 का है। इतने दिनों तक महिला चुप रहती है लेकिन जब न्यायमूर्ति उच्चस्थ पद पर आरूढ़ होते हैं, उसके बाद महिला सक्रिय हो जाती है। इस पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय की बातों में भी दम है। फिलहाल चीफ जस्टिस के पास कई अहम केस हैं। उसमें से एक मामला राफेल विमान खरीद का भी मामला है। अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को फिर से स्वीकार कर लिया है। ऐसे में न्यायपालिका को दबाव में लाने की साजिश से इंकार नहीं किया जा सकता है। ऐसा है तो भी जांच होनी चाहिए और मामले में दूध का दूध और पानी का पानी तभी संभव है जब स्वतंत्रा जांच एजेंसी इसकी जांच करे। न्यापालिका पीठ की गरिमा और मर्यादा सर्वोपरि है, इसपर संदेह नहीं किया जा सकता।

कई ऐसे मौके आए हैं जब न्यायपालिका ने अपनी ताकत दिखाई है हालांकि न्यायपालिका की अपनी हद है और वह अपने हद में बेहद मजबूत है। कभी-कभी तो उसने सरकार के निर्णय को पलट कर यह साबित कर दिया है कि सरकार भी अपने हद में रहे। वह अपनी सीमा का अतिक्रमण करेगी तो संविधान उसे भी निर्देशित करेगा। हाल ही में उत्तराखंड की हरीश रावत वाली सरकार के मामले में न्यायालय ने जो निर्णय सुनाया, वह केन्द्र को आईना दिखाने वाला निर्णय था। इसलिए इस देश में न्यायपालिका की गरिमा और मर्यादा पर सवाल खड़े करना असंभव है। इसे कमजोर भी नहीं किया जा सकता है। कानून का राज जबतक रहेगा, न्यायालय की गरिमा अक्षुण्ण रहेगी लेकिन निजी मामले को लेकर यदि न्यायालय अपनी गरिमा और मर्यादा की दुहाई देगा तो न्यायपालिका पर सवाल खड़े होंगे। डंडे उनके चाहे जितने बड़े हों लेकिन जन का विश्वास कायम रखने में वे नाकाम रहेंगे और वह क्षण इस देश के लिए दुर्भाग्य का क्षण होगा।  

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