ताबिश सिद्दीकी
ज्यादातर बुद्धिजीवियों के साथ सबसे बड़ी समस्या उनका अहम और अहंकार होती है। ये इंसानियत पसंद होते हैं, देश दुनिया और पृथ्वी के लिए अच्छी सोच रखते हैं मगर इनकी हर क्रांति, हर उपक्रम में इनका अहंकार आड़े आ ही जाता है और ये हमेशा ऐसे ही समय पर होता है जब घड़ी फैसले की होती है। इसका सबसे लेटेस्ट उदाहरण आप कन्हैय्या बनाम दलित, सेक्युलर, चिंतक और अन्य देख सकते हैं।
यही वजह है कि इस धरा पर राज हमेशा बेवकूफों का रहा है क्यूंकि बुद्धिजीवी मर जाएगा मगर अहंकार नहीं छोड़ेगा और वहीं एक औसत बुद्धि रखने वाली भीड़ चुपचाप अंधो में काना राजा चुन लेती है और बड़े बड़े बुद्धिजीवी हजारों समीकरण लिए विवेचना में ही फंसे रह जाते हैं।
राजनीति एक ‘गू’ का दलदल है, और जब कोई इसमें हद से ज्यादा नैतिकता और प्लूटो और सुकरात का दर्शन घुसेड़ने लगता है तो समझ नहीं आता है कि उसे कहा क्या जाए। हम सबकी मजबूरी ये है कि राजनीति इस वक्त हमारे देश और बच्चों का भविष्य तय कर रही है वरना इसके बारे में शायद ही कुछ ऐसा है जिस पर लिखा जाए।
भारत की राजनीति में उतरने के लिए आपको थोड़ा बैल टाइप होना होता है। अति संवेदनशीलता और ज्यादा समझदारी की यहां असल में कोई गुंजाइश नहीं होती। मैं जब लिखता हूँ राजनीति पर तो मैं कभी उसे मन से नहीं लिखता हूँ मगर मुझे पता है कि नहीं लिखूंगा तो आने वाली नस्लें पूछेंगी कि ‘जब भारत मंे आतंकी और उग्र लोग पैदा रहे थे उस वक्त आप उनको रोकने के लिए क्या कर रहे थे? इसलिए थोड़ी बहुत नैतिकता आपको ताक पर रखनी ही होती है राजनीति के लिए क्यूंकि आपका सामना ‘जोम्बियों’ से है। इनके स्तर पर जा कर इनको समझ कर ही इनकी काट निकालनी होगी आपको और हमें।
ऐसे आप देखने लगेंगे कि मेरा कौन सा दोस्त है जो आरएसएस का है, या मेरा कौन दोस्त भूमिहार है, मेरा कौन दोस्त देवबंद से है या मेरी जात क्या है, मेरा पंथ क्या है और वो सब देखकर आप मेरी पोस्ट पढ़ेंगे या समझेंगे तो फिर इस देश का सच में कुछ नहीं होने वाला है। इतना दिमाग लगाना और इस तरह की विवेचना बताती है कि आपको सिर्फ और सिर्फ रायता फैलाना है, और कुछ नहीं।
केजरीवाल इसका सबसे अच्छा उदाहरण हैं। उन्हें भी यही लगता था कि पांच साल में वो सारे नेताओं को राजा हरिश्चन्द्र बना देंगे मगर अब वो समझ गए कि जनता है कैसी। मर जाओगे इसके लिए, तब भी ये कहेगी ‘ऐसे कौन मरता है, थोड़ा टेढ़े मरे हो। सीधा सीधा मरना चाहिए था.. वो फलाना नेता कहता है कि वो जब मरेगा तो एकदम सीधा लेट के, स्ट्रेट मरेगा, इसलिए हम उसी को वोट देंगे।’
इसलिए इतनी माथापच्ची न करो.. देख लो। किसको चुन कर संविधान और न्याय की रक्षा हो सकती है। उसे चुन लो धीरे धीरे कर के माहौल बदलेगा। बहुत ज्यादा नैतिक और सुकरात वाली दार्शनिकता दिखाने वालों की तरफ से इस वक्त आंख मूंद लीजिए नहीं तो ये आपको बस नोटा ही दबवाएँगे और कुछ नहीं। जो बहुत ज्यादा जात पात करे उसे बाय बाय बोल दीजिए कुछ समय के लिए और जो कैंडिडेट आपको इंसानियत पसंद लगे, उसे चुनिए, भले ही वो भूमिहार हो, दलित हो, सवर्ण हो या अल्पसंख्यक। ये समय इस तरह की फालतू बहस का नहीं है। चुनाव बाद रम पी पी कर विवेचना करते रहना और राजनीति को ‘पाकीजा’ बनाते रहना।
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