दिलेर समाचार, जीवन के दो पहलू हैं सुख और दुख। जिसने इन दोनों का स्वाद चखा है उसे ही जीवन की वास्तविक खुशियां प्राप्त होती हैं। बहुआयामी व्यक्तित्व वाले प्रेमनाथ ऐसे ही लोगों में से एक थे। वे न केवल चोटी के नायक, सहनायक और खलनायक थे बल्कि देशभक्त सैनिक, राजनीतिज्ञ के साथ साथ साहित्यकार और तांत्रिक भी थे।
प्रेमनाथ ने 1948 में ’अजित‘ फिल्म के साथ सिनेमा जगत में प्रवेश किया। ढाई सौ से अधिक फिल्मों के अभिनय जीवन में उनकी अंतिम फिल्में थी ’देशप्रेमी‘ और ’क्रोधी‘। उनकी सफलतम फिल्में रही - ’जानी मेरा नाम‘, ’धर्मात्मा‘, ’बरसात‘, ’कालीचरण‘, ’शोर‘, ’संन्यासी‘, ’आन‘, ’सगाई‘, ’औरत‘, ’बादल‘, ’साकी‘, ’रूस्तम सोहराब‘, ’बेईमान‘, ’लोफर‘, ’धरम करम‘, ’प्रण जाये पर वचन न जाये‘, ’धन दौलत‘, ’तीसरी मंजिल‘, ’खोटे सिक्के‘, ’चंगेज खां‘ आदि
’तीसरी मंजिल‘ के लिए उन्हें उत्तरप्रदेश फिल्म पत्राकार एसोसिएशन ने पुरस्कार दिया था जबकि ’जानी मेरा नाम‘ का भूपेन्द्र सिंह, ’शोर‘ का खान बाबा, ’धर्मात्मा‘ का धर्मात्मा, ’संन्यासी‘ का भोग विलासी संन्यासी और ’कालीचरण‘ के पुलिस कमिश्नर ने उनकी विलक्षण अभिनय क्षमता को उजागर किया था।
प्रेमनाथ ने तत्कालीन चोटी की अभिनेत्रियों के साथ काम किया था चाहे मधुबाला हों या रमोला, निगार सुल्तान, सुरैया या फिर बीना राय। कालान्तर में बीना राय तो उनकी जीवन साथी भी बनी।
बाद में उन्होंनेे पत्नी बीना राय के साथ ’शगूफा‘, ’गोलकुंडा का कैदी‘ फिल्मों का निर्माण भी किया किंतु व्यावसायिक रूप से ये दोनों फिल्में बाक्स आफिस पर असफल सिद्ध हुई।
प्रेमनाथ के निजी जीवन में झांकने पर उनके व्यक्तित्व से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण तथ्य सामने आते हैं। उनकी मां, जो उन्हें मात्रा पांच साल की अवस्था में छोड़ स्वर्ग सिधार गयी थी, शिव भक्त थी। प्रेमनाथ भी शिव भक्त थे। वे जीवन के अंतिम दिनों में रात के तीसरे पहर तक रूद्राक्ष, पत्थर, वेद और पुराणों पर प्रवचन करते रहते थे जबकि उनके पिता पुलिस में आई.जी थे।
पुलिसिया रौब-दाब वाला परिवार होने के कारण उनके स्वभाव में हठी और जिद्दीपन के लक्षण स्पष्ट थे। इसी पारिवारिक माहौल ने उन्हें आर्मी में जाने को प्रेरित किया। कुछेक पाठकों को ही यह पता होगा कि जनरल मानेकशा सेना में ‘ऑफिसर्स अंडर टेªनिंग’ के दौरान प्रेमनाथ के जूनियर रहे थे किंतु रंगकर्मी प्रेमनाथ का वहां मन न लगा और वे इस्तीफा देकर स्व. पृथ्वीराज कपूर के शिष्यत्व में रंगमंच पर उतर आये।
फिल्मी जीवन के उत्थान-पतन के बीच उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया। उन्होंने ‘स्वतंत्रा पार्टी का गठन किया और उसके प्रचार व प्रसार हेतु देश भर का दौरा कर भाषण दिये किंतु राजनीति का छल, कपट, अनैतिकता तथा कटुता उन्हें नहीं भाये। बाद में उन्होंने राजनीति से अपना पांव खींच लिया।
एक साहित्यकार के रूप में प्रेमनाथ ने कुछ किताबें भी लिखी थी-श्रद्धांजलि, टीयर्स ऑफ लव और दिल के आंसू। श्रद्धांजलि में वैराग्य, प्रकृति, युद्ध और राजनीति, प्रेम तथा दर्शन जैसे गूढ़ विषयों पर उन्होंने कलम उठाई थी। सुधी पाठक प्रेमनाथ शरतचन्द्र से लेकर कमलेश्वर, निर्मल वर्मा, जैनेन्द्र और महादेवी वर्मा तक के साहित्य का अध्ययन किया था।
बाद में प्रेमनाथ रंग क्षेत्रा से चमक दमक से सीधे अध्यात्म की ओर मुड़ गए। हिमालय की कंदराओं में तपस्या कर वे कुछ ही दिन पूर्व मुंबई लौटे थे। कहा जाता है कि उन्होंने तंत्रा बल से पृथ्वीराज कपूर (पापा जी) को महायात्रा पर जाने से कई घंटों तक रोके रखा था किंतु अपनी अनंत यात्रा को वे कुछ क्षण भी न रोक सके। अब तो बस उनकी यादें शेष रह गयी हैं। ऐसे बहुमुखी व्यक्तित्व को अंजुलि भर श्रद्धा के पुष्प अर्पित हैं
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