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बच्चों की दुर्दशा समूची दुनियां के देशों में देखने को मिल जायेगी जहां पर बच्चे अपना बचपन नीलाम कर श्रम के जरिये अपने परिवार की कमाई से अपना हिस्सा जुटाने में रात दिन प्रयासरत हैं। शायद इन्हें नहीं मालूम कि बचपन क्या होता है। यही कारण है कि ऐसे अभागे बच्चे पैदा होने के 7-8 वर्षों के बाद ही जीवन के प्रत्येक क्षेत्रा में अपने दो कमाऊ हाथों के जरिये सुबह से लेकर देर रात तक श्रम करते हैं।
भारत जैसे विकासशील देश में इन बच्चों को परिवार की रोजी-रोटी में हिस्सा बंटाने के लिए रोज 10 से 14 घंटे तक कठोर श्रम करना पड़ता है व बदले में इन्हें बहुत कम मजदूरी मिल पाती है। अपने खेलने खाने के दिनों में ये बच्चे अपने परिवार का एक मजबूत सहारा बन जाते हैं।
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ऐसे बाल मजदूर मुख्यतः शहरों के रेलवे प्लेटफार्म पर बोझ ढोते, जूते पॉलिश-करते, होटलों में जूठे बर्तन धोते व घरों में नौकरों के रूप में मिल जाते हैं। इसके अलावा छोटे-मोटे कारखानों व उद्योगों में भी ये बच्चे कार्य करते नजर आ जाते हैं जहां पर न तो काम के घंटे निश्चित होते हैं व न ही वेतन।
जीने की लालसा लिए अपना बचपन बिताने वाले इन बाल श्रमिक मजदूरों के भविष्य की चिंता आज समूची दुनिया में चर्चा का विषय है। इनके भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए तमाम संस्थाएं व सरकारें भी प्रयासरत हैं लेकिन अब तक कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आया है। हालांकि केंद्र व राज्य सरकारें जोर-शोर से 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों का पता विभिन्न कार्य क्षेत्रों में सर्वे के माध्यम से लगा रही हैं व आवश्यकतानुसार कार्यवाही भी जारी है लेकिन बाल-कल्याण के ऐसे अभियान इस दिशा में कोरे हथियार ही साबित हो रहे हैं।
यूनिसेफ की रिपोर्ट के आधार पर दुनियां के बच्चों की स्थिति देखी जाये तो बाल मजदूरी पर लगाये गये तमाम प्रतिबंध कोरी कागजी कार्यवाही ही साबित हुए हैं। हालांकि इसमें निहित कानूनों द्वारा ऐसे उद्योगों में जहां कम उम्र के बच्चे खतरनाक कार्य कर रहे हैं, दबाव पड़ने पर निकाल अवश्य दिये गये हैं लेकिन आर्थिक मजबूरी इन्हें पहले से भी ज्यादा खतरनाक उद्योगों में खींच ले गयी।
बच्चों को संरक्षण और उनके अधिकार सुरक्षित रखने की दिशा में चर्चांएं तो खूब होती हैं लेकिन इसके साथ जुड़ा कड़वा सच यह भी है कि दुनियां भर के देशों की सरकारें कानून की मदद से भी इन बच्चों को खतरनाक उद्योगों से निजात व मुक्ति नहीं दिला पायी हैं, बल्कि उनके बनाये कानून पूरी तरह से असफल हुए हैं।
यूनिसेफ की रिपोर्ट में खतरनाक उद्योग धंधों में लगे बच्चों के अधिकारों का उल्लंघन व मानवीय सभ्यता के विरूद्ध अपराध की संज्ञा दी गयी है किंतु इस मिथक की अवधारणा को भी गलत साबित करार दिया गया है कि बाल मजदूरी महज गरीब और विकासशील देशों की समस्या है।
समूची दुनियां में चाहे अमरीका हो या कोई अन्य यूरोपीय देश अथवा एशिया महाद्वीप, हर देश का गरीब बच्चा जहां अपनी नाजुक उम्र में कठोर से कठोर कार्य करने को विवश है, वहीं छोटी उम्र की नादान बालिकाएं वेश्यालयों में अपने गर्म गोश्त का धंधा कर पेट की भूख मिटाने में लगी हुई हैं। कई मुल्कों में तो छोटे बच्चों के यौन-शोषण का घिनौना कार्य करने में कई संस्थाएं लगी हुई हैं लेकिन वे कानून की पकड़ से कोसों दूर रहते हैं।
आज पूरे विश्व में 14 वर्ष से कम उम्र के 25 करोड़ बच्चे मजदूरी करने को विवश हैं जिनमें 47 प्रतिशत अफ्रीका में, 16 प्रतिशत मध्यपूर्व में व उत्तरी अफ्रीका में, 34 प्रतिशत दक्षिण एशिया में तो 12 प्रतिशत लेटिन अमरीका में, 6 प्रतिशत एशिया (पूर्व) व प्रशांत क्षेत्रों में तथा 13 प्रतिशत अन्य राष्ट्रकुल देशों में हैं।
बाल मजदूरी व बाल शोषण के क्षेत्रा में भारत जैसे प्रगतिशील देश की गिनती सबसे ऊपर है जहां 15 करोड़ बच्चे बाल मजदूरी कर रहे हैं जिसमें अब भी 3 करोड़ बच्चे खतरनाक उद्योगों में कार्यरत हैं। यहां 2 करोड़ बच्चे खेतों में व लघु उद्योगों में बंधुआ मजदूर के तौर पर अपना जीवन बिता रहे हैं। देश में गरीब परिवारों की आमदनी का 23 प्रतिशत भाग उनके बच्चे ही कमाकर दे रहे हैं।
यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि इन बच्चों के जीवन में स्कूली शिक्षा, मनोरंजन व स्वास्थ्य के लिए कोई महत्व नहीं है। भारत में 14 वर्ष से कम आयु के बच्चे माचिस उद्योग, कालीन उद्योग, पटाखा फैक्ट्रियों, माचिस बॉक्स उद्योग, स्लेट व रेशम उद्योग में कार्यरत हैं। इन उद्योगों के मालिक इन बच्चों को जहां बंधक बनाकर रखते हैं, वहीं उनका दैहिक शोषण करने से भी बाज नहीं आते हैं। देश की शिवाकाशी स्थित पटाखा फैक्ट्रियों, फिरोजाबाद का चूड़ी उद्योग, जहां सर्वाधिक जान-जोखिम वाले कार्य होते हैं, में बच्चों की सर्वाधिक दुर्दशा है।
समूचे विश्व बाजारों में उत्पादों की तेजी से बढ़ती मांग व औद्योगीकरण के बढ़ते फैलाव से बाल मजदूरों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है। इन उद्योगों की आय व बच्चों को दी जाने वाली श्रम राशि में बहुत असमानता है, लेकिन दो वक्त की रोटी की मोहताजगी इन बच्चों को कड़े से कड़ा श्रम करवाने को इस कदर मजबूर कर चुकी है कि ये अन्यंत्रा किसी और दिशा में सोच भी नहीं सकते।
भारत जैसे गरीब मुल्क में कम उम्र के बाल मजदूरों को शोषण से मुक्ति दिलाना महज दिवास्वप्न ही है क्योंकि पैसों के बल पर बड़े उद्योगपति कानून के ही रखवालों का मुंह बंद करने में सक्षम रहते हैं। बाल मजदूरी को रोकने के प्रयास व बाल कल्याण सुधार जैसे कार्यक्रम सरकारी अफसरों के भरोसे उन कर्मचारियों से सर्वेक्षण करवा कर महज खानापूर्ति ही की जाती है। हालांकि कई बार सरकारी अफसरों के घर से ही बाल मजदूर बरामद हुए हैं लेकिन लीपापोती कर मामले दबा दिये जाते हैं और बाल मजदूर जस के तस उनके घरों में सस्ते नौकर बने रहते
हैं।
हालांकि बाल मजदूरों की समस्याएं हल करना काफी जटिल कार्य हैं लेकिन इनके समाधान के प्रयास जहां ईमानदारी से हों, वहीं बाल मजदूरों पर आश्रित परिवारों के संदर्भ में भी सोचना जरूरी है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि जहां बाल मजदूरों को उनके शोषण से मुक्ति दिलवायी जाये, वहां इस बात के पुख्ता इंतजाम हों कि ये बाल श्रमिक फिर से इस यातना भरे जोखिम कार्यों से जुड़ने न पायें। यदि उनकी जीवनयापन संबंधी समस्याएं ज्यों की त्यों बनी रहीं तो चाहकर भी बच्चों को बाल मजदूरी की शोषण की चक्की से मुक्त नहीं करवा पायेगी।
बाल मजदूरी के क्षेत्रा में जहां लड़कों की दुर्दशा तो है ही, वहीं बालिका मजदूर शारीरिक शोषण की दोहरी मार खा रही हैं। उनके साथ जोर जबरदस्ती व बलात्कार जैसे अमानुषिक कार्य भी होते हैं लेकिन सबसे बड़ी समस्या उनके साथ अवैध गर्भधारण की भी होती है, जिसे भी ले देकर दवा दिया जाता है व अपराधी कानून के शिकंजे में फंसने की बजाय सरेआम घूमते नजर आते हैं।
सचमुच यदि विश्व के तमाम देश अंर्तराष्ट्रीय बाल दिवस पर बालश्रम जैसी समस्या का ठोस व रचनात्मक निदान करना चाहते हैं तो उन्हें लचीली श्रम शक्ति की तलाश में बढ़ती बाल मजदूरी प्रथा के बारे में नये सिरे से सोचना होगा ताकि देश के भावी निर्माता, बच्चों का हर क्षेत्रा में शोषण न हो सके। देश की बाल शक्ति की अनदेखी व उपहास की प्रवृत्ति पर अकुंश लगाना होगा, तभी हम एक समृद्ध राष्ट्र की कल्पना कर सकेंगे।
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