दिलेर समाचार, डा. विनोद बब्बर। राजनीति का अपना चरित्रा है। सत्ता में आने पर पिछली सरकारों की सभी उपलब्धियों को नकारना और भूतपूर्वो को ‘अक्षम’ घोषित करना सत्ता पक्ष अपना महत्त्वपूर्ण कर्मकाण्ड मानता है तो विपक्ष भी वर्तमान की हर उपलब्धि को अपनी सरकार की योजना बताकर वर्तमान सरकार को नाकारा बताना जरूरी समझता है। दोनांे की दृष्टि में लोकतंत्रा की वास्तविक परिभाषा वह है जो वे तय करे क्योंकि उनका ‘मनमाना’ आचरण ही लोकतंत्रा की कसौटी है परंतु एक से बढ़कर तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं। देश की जनता राजनीति के इस खेल को अच्छी तरह से समझते हुए भी मौन रहती है लेकिन कष्ट तब होता है जब शिक्षा को भी राजनीति की बलिवेदी पर विकृत और अपमानित किया जाता है।
व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन की उम्मीद जगाकर दिल्ली में सत्ता में आये लोगों ने भी पिछली सरकारों को शिक्षा की अनदेखी करने के आरोपों से नवाजते हुए शिक्षा के मंदिरों में अपने नेताओं के चित्रों वाले हार्डिंग भी लगाये। शायद उनका विश्वास था कि क्रांतिकारी नेताओं के चित्रों से ही शिक्षा में सकारात्मक बदलाव होगा। शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए सरकारी स्कूलों में हुए इस कायाकल्प से शिक्षा का स्तर कितना ‘ऊंचा’ उठा, इसके लिए स्वयं उन्हीं के बयानों से अनुमान लगाया जा सकता है। दिल्ली में शिक्षा मंत्रालय का कार्य संभाल रहे माननीय उपमुख्यमंत्राी जी ने स्वयं स्वीकारा है कि हाल ही में दिल्ली के सरकाारी स्कूलों में आयोजित ‘प्री बोर्ड टैस्ट’ के परिणाम निराशाजनक ही नहीं, अपमानजनक हैं क्योंकि मात्रा 10 प्रतिशत छात्रा ही इसे पास कर सके हैं, इसलिए इन स्कूलों के शिक्षकों को नोटिस जारी किये जा रहे हैं।
शिक्षा के स्तर में इस ‘क्रांतिकारी परिवर्तन’ का श्रेय शिक्षकों को दिया जाये या व्यवस्था को, इस पर बहस चलती रहेगी। फिलहाल शिक्षकों का कहना है कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों में हजारांे पद रिक्त हैं तो दूसरी ओर शिक्षा के वातावरण का अभाव है। अनुशासन कायम रखने की जिम्मेवारी शिक्षकांे की है जबकि शिक्षक किसी उदण्ड छात्रा को दण्डित करना तो दूर, उन्हें डांट भी नहीं सकते।
अनेक मामलों में शिक्षक न केवल दिल्ली बल्कि पूरे देश में छात्रों के दबाव में है। गत दिवस यमुनानगर में एक छात्रा ने प्रधानाचार्य को गोली मार दी तो वेल्लोर के एकं छात्रा ने अपने प्रधानाचार्य को चाकू घुसेड़ दिया। पिछले साल दिल्ली के एक विद्यालय में कक्षा में घुसकर छात्रा ने शिक्षक की हत्या कर दी। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो शिक्षा के उचित वातावरण की अनुपस्थिति की ओर संकेत करते हैं। ऐसे वातावरण में किसी शिक्षक को ‘राष्ट्र-निर्माता’ कहा जाना किस तरह उचित है।
दूसरी ओर राजनीति का असर है कि किसी तरह नियुक्ति पा गये कुछ शिक्षक भी ‘क्रांतिकारी’ हैं। मध्यप्रदेश के एक जिलाधिकारी ने अपने दौरे के अवसर पर एक शिक्षक से स्कूल का नाम ब्लैकबोर्ड पर लिखने को कहा तो उसने ‘गवर्नमेंट मिडिल स्कूल’ का नाम ही गलत लिखा जबकि उसी कक्षा के एक बच्चे ने उसे सही लिखा। एक स्कूल की अध्यापिका से ‘मिडिल’ की स्पेलिंग पूछी गई तो उसने हाथ जोड़ लिए।
केवल मध्यप्रदेश ही क्यों, कुछ समय पूर्व जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट ने भी ऐसा ही एक मामला सामने आया। दक्षिण कश्मीर के एक अध्यापक की नियुक्ति को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता ने उसपर ‘अयोग्यता’ का आरोप लगाया तो कोर्ट ने उसेे अंग्रेजी से उर्दू और उर्दू से अंग्रेजी में अनुवाद के लिए एक आसान सी पंक्ति दी जिसका वह अनुवाद नहीं कर सका। और तो और, वह अध्यापक बेहद आसान सी परीक्षा में पास नहीं हो सका जब वह ‘गाय’ पर निबंध भी नहीं लिख सका था। गत वर्ष एक राज्य विशेष में सामूहिक नकल के चित्रों ने सभी को शर्मसार किया। यह संतोष की बात है कि उत्तर प्रदेश की नई सरकार नकल पर सख्ती से रोक लगाने जा रही है लेकिन इसके सकारात्मक परिणाम तभी सामने आयेंगे जब ऐेसे प्रयासों को क्षुद्र राजनीति से दूर रखा जाये क्योंकि उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह सरकार ने शिक्षा के स्तर में सुधार के प्रयासों में नकल पर रोक लगाने की घोषणा की तो विपक्षी दलों ने इसे राजनीतिक मुद्दा बनाते हुए सत्ता में आने पर उस कानून को निरस्त करने का वादा किया।
राजनीतिक लोग शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने की बातें तो अक्सर करते हैं पर कोई गंभीरता नहीं दिख सके हैं। केवल अपना नाम लिखना -पढ़ना ही साक्षरता का मापदंड है तो शिक्षा के स्तर पर चर्चा निरर्थक है। इस बात से इंकार नहीं कि सरकारी से अधिक निजी विश्वविद्यालयों की बाढ़ सी आई है। हर साल लाखों डाक्टर, इंजीनियर तैयार होते हैं। ला और एमबीए जैसे अनेकानेक कोर्स पास करने वालों की संख्या भी लाखों में होती है परंतु गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले करोड़ों लोगों के बच्चों का शिक्षा के स्तर क्या है, इसपर चुप्पी क्यों? क्या शिक्षा व उनका जीवन स्तर सुधारे बिना भारत का विकास संभव है?
वह राष्ट्र जो अग्रणी स्थान पाने का जोश दिखा रहा हो, वहां शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रश्न उठना ही चाहिए। यह भी विचारणीय है कि हमारे एक भी विश्वविद्यालय को विश्व रैंकिंग में क्यों स्थान प्राप्त नहीं है। कहीं ऐसा तो नहींे कि राजनीति की घुसपैठ इसके लिए जिम्मेवार हो। युवा छात्रों को राष्ट्रद्रोही नारो में उलझकर शिक्षा के स्तर को किस प्रकार ऊंचा उठा सकते हैं, इस पर भी गैर राजनीतिक और ईमानदार शोध की आवश्यकता है। शिक्षा के ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन किये बिना विश्वगुरु तो बहुत दूर की बात है, न तो शिक्षा का स्तर सुधार सकता है और न ही ‘डिजिटल इण्डिया’ और ‘स्किल्ड इण्डिया’ सफल हो सकते हैं।
क्या हम अपने दिल पर हाथ रखकर इस बात से इंकार कर सकते हैं कि आजतक हम जाति से ऊपर नहीं उठ सके हैं। जनगणना से अधिक जोर जातिगणना के आंकड़ों पर है। साक्षरता से सजातीयता प्रिय होने के कारण शिक्षा के स्तर पर चर्चा की जरूरत महसूस नहीं होती। शायद उन्हें निरक्षर रखकर शासन करने की सोच बदली नहीं है। यह विशेष स्मरणीय है कि सन् 1911 में महान देशभक्त श्री गोपाल कृष्ण गोखले ने मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का बिल पेश किया था तो ग्यारह हजार बड़े जमींदारों के हस्ताक्षरों वाली याचिका में कहा गया था कि ‘अगर गरीबों के बच्चे स्कूल जाएंगे तो जमींदारों के खेतों में काम कौन करेगा।’
बेशक शिक्षण संस्थानों की संख्या बढ़ी है लेकिन सूचना क्रांति के इस दौर में आज भी देश के एक चौथाई स्कूलों में भी शिक्षा प्रदान करने वाले आधुनिक संसाधन होना तो दूर, उनका नाम तक नहीं जानने वाले लोग मौजूद है। अनेक स्थानों पर कम्प्यूटर है भी तो ताले में बंद है। ढेरों पद रिक्त हैं। ऐसे में गुणवत्ता की चिंता करे भी तो कौन? शिक्षा के स्तर पर चर्चा अधूरी और निरर्थक रहेगी यदि हम देश के शिक्षकों की दशा और दिशा को अनदेखा करें।
क्या यह सत्य नहीं कि हमारी नई पीढ़ी डाक्टर, इंजीनियर, सीए, आईएएस, आईपीएस, जज, मैजिस्टेट तो बनना चाहती है पर शिक्षक नहीं बनना चाहती। यदि प्राथमिकता, ‘कहीं नहीं तो यहीं सही’ की मजबूरी से कोई शिक्षक बनता है तो स्पष्ट है कि न तो समाज और सरकारें शिक्षक के प्रति कहीं न्याय कर पा रही है और न ही ऐसे शिक्षक भी अपनी भूमिका के साथ न्याय कर सकते हैं।
अभी हाल ही में प्रस्तुत केन्द्रीय बजट में शिक्षा के ढांचे में सुधार पर बल दिया गया है। शीघ्र ही शिक्षा का नया सत्रा आरंभ होने जा रहा है। शिक्षा प्रणाली की कमियों को सभी स्वीकार तो करते हैं परंतु उसके सुधार में लगभग सभी के कदम लड़खड़ाते रहे हैं। इसलिए आवश्यकता है नीति आयोग की तरह शिक्षा आयोग बनाकर यह कार्य राजनीति की बजाय योग्य शिक्षाविदों और समर्थ समाजशास्त्रिायों को सौंपा जाये। यदि नीति निर्माण के कार्य से राजनेता दूर रहे, तभी शिक्षा और ज्ञान को केवल नौकरी पाने का माध्यम बनाने की बजाय चरित्रा निर्माण का माध्यम बनाये जाने पर विचार संभव है। यदि हम शिक्षा को सांस्कृतिक मूल्यों से जोड़ने में सफल होकर ही हम चहंु ओर व्याप्त अनुशासनहीनता और देशद्रोह से भी निजात पा सकते हैं वरना हमारे सारे दावे ‘हवा-हवाई’ दुनियां में ही विचरण कर रहे होंगे।
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