दिलेर समाचार,(लेखक-नीरज शर्मा) । भारत देश को समस्त विश्व हमेशा से ही विश्वगुरू की संज्ञा से संबोधित करता रहा है।उसका मुख्य कारण यह रहा कि भारत वर्ष में जन्मे अनेक महापुरुषों ने अपने विचारों एवंम कर्मों से विश्व को नई दशा-दिशा दिखाई। भारत वर्ष से ही दसों दिशाओं में धर्म और कर्म की महिमा फैली है। हमारे भारत देश में हमेशा से भिन्न-भिन्न त्यौहार बहुत ही हर्षोल्लास से मनाऐ जाते रहे है।शासन चाहे किसी का भी रहा हो परन्तु त्यौहारों की रौनक में कभी कमी नही आई और ना ही लोगो में त्यौहार मनाने का उत्साह कभी कम हुआ। परन्तु यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि हम लोग उन त्यौहारों को मनाने के पीछे के मुख्य उद्देश्य को सभी लगभग भूल से ही चुके हैं। आज-कल जो माह चल रहे हैं उन्हें हम लोग त्यौहारों के दिन कहते या माह कहते।इसका मुख्य कारण भारत में मनाऐ जाने वाले मुख्य त्यौहार इन्हीं दिनों में आते। पितृपक्ष या श्राद्धों के दिन पूर्ण होते ही नवरात्रों कि शुरुआत हो जाती है और साथ ही सजने लगते हैं दुर्गा पूजा के पण्डाल एवंम रामलीला के मंच।अगर हम पूरे भारत को उत्तर एवंम दक्षिण दो हिस्सों में ऊपर से नीचे को चलते हुए आधा-आधा बांट दे तो उत्तर के ज्यादातर हिस्सों में इन दिनों में रामलीला मंचन का बोल-बाला रहता है और दक्षिण में दुर्गा पूजा पण्डालों की धूम रहती है।एक ही शहर में अनेक जगहों पर अलग-अलग छोटी एवं बड़ी कमेटियां इन का आयोजन उस इलाके के लोगों और व्यापारियों की स्वयंइच्छा से दिये गए धन एवंम सहयोग से पूर्ण करतीं हैं। दुर्गा पूजा और राम लिलाओं के अयोजन का मूल उद्देश्य भगवान राम और माता दुर्गा का जीवन चित्रण, शिक्षाएं आदि जन- जन तक नाटकीय रुपांतरणो के माध्यम से पहुंचाना है । परन्तु अब इस तरह के आयोजन अपने उद्देश्यों से भटक के रसूखदार लोगो और नेताओं के शक्ति प्रदर्शन का मंच बनकर रह गए हैं।अब इस तरह के आयोजनों में नेताओं या रसूखदार लोगों को मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया जाता है।इन कार्यक्रमों में आने वाले मुख्य अतिथि भी बहुत जल्दी में रहते है।वे भी आनन फानन में भाषण दे कर रफूचक्कर होने के चक्कर में रहते हैैं। उनके हाव-भाव ही बता देते हैं कि ना तो उनके मन में किसी भी तरह की इन अयोजनों के प्रति श्रद्धा है और ना ही उनकी शिक्षाओं एवंम आदर्शों को समझने की इच्छा ही उनमें है।नेता जी के आते ही सब लोग मंचन की मर्यादा भूल कर नेता जी के स्वागत में जुट जाते हैं।जितना बड़ा आयोजन उतना बड़ा नेता मुख्य अतिथि और उतने ज्यादा कैमरे एवं पत्रकार।इन मंचन कमेटियों में मुख्यता चार प्रकार के प्राणी पाये जाते हैं।पहले जो सच्ची श्रद्धा के साथ इन कार्यक्रमों के साथ जुड़ते हैं,आमतौर पर इन की संख्या बहुत कम होती है।दूसरे प्रकार के प्राणीयों की नजर हमेशा बाहर मंचन स्थल तक आती मुख्य सड़क पर ही रहती है। जैसे ही उन्हें नेता जी की गाड़ी आती दिखाई देती है।वे तुरंत भाग कर जा नेता जी की गाड़ी के रुकते ही गाड़ी का दरवाजा खोलते हैं।उनका मंचन में भाग लेने का मुख्य उद्देश्य ही नेता जी की नज़रों में आना होता है।उनका मुख्य कार्य नेता जी के लिए रास्ता खाली करवाते हुए और लोगो के साथ धक्का-मुक्की करते हुए नेता जी को मंच तक ले कर जाना होता है और वहां खड़े लोगों को यह आभास करवाना होता है कि वो नेता जी के बहुत खास है। तीसरी किस्म के प्राणी इन आयोजनों में देखने को मिलते हैं जो खुद को नेता जी का खास गुप्तचर समझते हैं।वे हर बात नेता जी के कान में घुस कर बताते हैं।ऐसे प्राणी अपना मुंह नेता जी के इतनी पास ले जाते हैं कि एक बार तो नेता जी भी डर जाते हैं कि यह करना क्या चाह रहा है।वो नेता जी की बोली बातों को सुनते भी इसी तरह गोपनीय ढ़ग से हैं। नेता जी मंच पर जैसे ही भाषण देने के लिए पहुंचते हैं।अचानक से चौथी किस्म के प्राणी हरकत में आ जाते हैं।उनका मुख्य काम होता है नेता जी के नाम की जय-जयकार करना, नारे लगाना और तालियां पिटवाना।आज इस दल के नेता आते हैं,कल उस दल के नेता आ रहे हैं।यही चलता रहता है बस।कभी मंच पर एक से दूसरे दृष्य के अंतराल में बालीवुड गानो पर रावण और प्रभु रामचंद्र जी का रूप धरे कलाकार इकट्ठे नाचने लग जाऐंगे गीत चल रहा है 'आ देखे जरा किस में कितना है दम' या श्री लक्ष्मण,स्रूपनखा के संवाद में गीत चल रहा है 'मैं ऐसी चीज नही जो घबरा के पलट जाऊगा' या दृष्यों के मध्यांतर में रावण अगंद के साथ खड़ा सैल्फी खींच के फेसबुक पर डाल रहा है या श्री लक्ष्मण-भगवान परशुराम जी के संवादों में,'छोटा बच्चा जान के ना यूं आंख दिखाना रे' और भी इस तरह की बहुत सी घटनाएं देखने को मिलती है।असल में आज की जीवनशैली में इन लिलाओ के मंचन का कोई औचित्य ही नही रह गया है। रामलीला मंचन की शुरूआत 17वी शताब्दी के मध्य में हुई।जब तुलसीदास जी ने बाल्मिकी रामायण का अनुवाद हिन्दी की उपभाषा अवधि में 'श्रीराम चरित मानस' के रूप में पूर्ण किया तो वह अपने एक शिष्य जिसने उस दौरान उनकी बहुत सेवा की थी इसलिए तुलसीदास जी उससे बहुत प्रसन्न थे। तुलसीदास जी ने उसे एक वर मांगने को कहा। पहले तो उस शिष्य ने मना कर दिया पर जब तुलसीदास जी नही माने तो वो बोला,"गुरुवर मैं आपके द्वारा रचित इस पवित्र ग्रंथ का मंचन कर इसका संदेश जन-जन तक पहुंचाना चाहता हूं क्यो कि पढ़ना लिखना तो बहुत ही कम लोग जानते हैं पर मंचन देख के सभी इन चरित्रों को अपने मन में बसा सकते हैं। उसकी रचनात्मक बुद्धि देख तुलसीदास जी प्रसन्न तो बहुत हुए परन्तु साथ ही बोले कि यह मंचन बहुत से दुष्परिणाम और अवगुण समेट कर अपने साथ लाएगा ,जो कि कही ना कही सभी चरित्रों की छवी धूमिल कर देगा।इस लिए और किसी दूसरी वस्तु का वर मांगा लो वत्स।वो बोला नहीं प्रभु मुझे यही वर चाहिए अन्यथा कुछ नहीं। तुलसीदास जी वचन देने के कारण उसकी इच्छा पूर्ती के लिए विवश थे।उन्हे ना चाहते हुए भी उसे प्रभु लीला का मंचन करने का अधिकार उसे दे दिया।इस तरह से रामलीला मंचन आरम्भ हुआ।समय के साथ- साथ देश और विश्व में अलग अलग स्थानों पर अलग अलग दल इसका मंचन करने लगे।इन लीलाओं में साधारण मनुष्य को उन्हीं असल पात्रों जैसे वस्त्र, आभूषण आदि पहना कर उन्हीं असल पात्रों के जैसी छवी देने की कोशिश की जाती है।इस से पहले नट-नटनिया इन पात्रों को अपने नाटकों में बस सांकेतिक रूप में ही दर्शाते थे। परन्तु इसके बाद तो इन पात्रों के जैसे दिखने की होड़ सी लग गई।यहां तक की बहुत से राजा-महाराजाओं ने इन पात्रों का रूप धर मंच पर प्रस्तुति दी है।इन सब के बाद बहुरूपियों ने भी यही रूप धारण कर भिक्षा मांगनी शुरू कर दी। कहीं भी चौराहों पर हमें भगवान शिव जी, मां शक्ति, भगवान हनुमान जी आदि का रूप धारण किए भीख मांगते लोग आम ही दिख जाऐगे। थोड़ी देर बाद वही शख्स उसी रूप को धारण किए सड़क के किनारे बिडी,मदिरा,मास खाता दिख जाऐगा।आज लोगों का साधू-संतों से विश्वास लगभग उठ सा गया है।इसका कारण यही है कि कोई भी गेरूआ वस्त्र धारण कर लेता है।मेरा यह लेख लिखने का उद्देश्य खाली इतना है कि इस तरह के कार्यों को रोका जाए नही तो आऐ दिन फिल्मी पर्दों पर भगवान शिव के पिछे भागते आमिर खान के व्यंगातमक दृष्य यु ही दिखते रहेंगे।
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