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महामारी के बीच उलझता जीवन

Posted at: Jul 1 , 2020 by Dilersamachar 9499

सज्जाद हैदर 

कोरोना की मार आज के समय में अपने चरम पर पहुँच रही है। पूरा विश्व इस गंभीर समस्या से पीड़ित है। कोई भी देश ऐसा नहीं जो इस महामारी से अछूता हो। कुछ देश बड़े पैमाने पर जान और माल दोनों की बड़ी क्षति झेल रहे हैं तो वहीं कुछ देश जान की कम क्षति तो माल की क्षति ही बड़े रूप में झेल रहें हैं। आर्थिक संकट की घनघोर घटा पूरे विश्व में अपना कहर बरपा रही है। पूरा संसार आर्थिक तंगी से जूझ रहा है।

इस महामारी से विकसित देशों की हालत भी खस्ता हो चली है। सभी विकसित देश मंदी और आर्थिक तंगी का रोना रो रहे हैं। विकासशील देशों की हालत और अधिक खस्ता है। सभी देश बड़े संकट से गुजर रहे हैं। जहाँ व्यापार और बाजार बंद हो गए, वहीं नौकरियां भी लगातार जा रही हैं। इस माहामारी की मार से न्यून्तम और मध्यम वर्ग पूरी तरह से प्रभावित है। न्यूनतम वर्ग जहाँ गरीब पहले से ही था, वहीं मध्यम वर्ग नया गरीब बनने की कगार पर आ खड़ा हुआ है क्योंकि सभी प्रकार के आय के संसाधन पूर्ण रूप से बंद हो गए।

बाजार में खपत पूरी तरह से समाप्त हो चुकी। इस कारण नौकरियाँ भी जा रही हैं और व्यवसाय भी क्योंकि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। जब भी बाजार मंदी की मार झेलता है तो यह सत्य है कि उस मंदी की मार बाजार से चलकर उस रसोई तक जाती है जो भी उस प्रोडक्ट से जुड़ा है। उसकी रसोई में धक्का पहुँचता ही है। यह धक्का इतना जोरदार होता है कि इससे जुड़ा हुआ गरीब आदमी पहले ही अपनी रसोई में सन्नाटा देखता है। मजदूर एवं मध्यम वर्ग की नौकरी पर सबसे पहले ग्रहण लगता है। इस महामारी के कारण तमाम क्षेत्रों में व्यापक परिवर्तन की संभावना बनती दिख रही है। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में से एक है शिक्षा।

यदि हम विकसित देशों की बराबरी करना चाहते हैं तो हमारे लिए अपने मानव संसाधन ढांचे को बेहतर बनाना अनिवार्य हो गया। इसमें निर्णायक पहलू यह होगा कि हमें अपने शैक्षणिक मापदंड सुधारने होंगे। अब आनलाइन शिक्षा को वास्तविक आधार देने का समय आ गया है। शिक्षा को व्यवसाय से परे ले जाना होगा।

भव्य इमारतों के उन्माद के बजाए गुणवत्तापरक अध्ययन सामग्री और शिक्षकों में निवेश बढ़ाना होगा। अब उच्च गुणवत्ता वाली आनलाइन शिक्षा को आधार देना ही होगा। वैसे भी वर्चुअल कक्षाओं में जगह की कोई बाधा नहीं तो उसमें तमाम छात्रा समाहित किए जा सकते हैं। इससे छोटे शहरों से बड़े शहरों की ओर होने वाले छात्रों के पलायन में तत्काल कमी आएगी। छात्रों को शहर में मकान के किराये, परिवहन और रोजमर्रा के अन्य खर्चों से भी मुक्ति मिलेगी। परिणामस्वरूप हमारी उच्च शिक्षा किफायती बनेगी। हालांकि इंटरमीडिएट तक स्कूली स्तर पर पारंपरिक शिक्षा का कोई विकल्प नहीं हो सकता। बच्चे केवल अकादमिक ज्ञान के लिए ही नहीं बल्कि तमाम जीवन कौशल सीखने के लिए भी स्कूल जाते हैं। फिर भी यहां आनलाइन शिक्षा के कई लाभ मिल सकते हैं। ऐसी स्थितियों में आनलाइन शिक्षा भले ही आदर्श न हो लेकिन उसके द्वारा उपलब्ध कराई जाने वाली निरंतरता अवश्य कुछ वैकल्पिक भरपाई करेगी। चूंकि वर्चुअल कक्षाओं का चलन जोर पकड़ रहा है, इसलिए देश में शिक्षा के समूचे ताने-बाने को नए सिरे से गढ़ने की जरूरत है।

बुनियादी रूप से शिक्षा के दो पहलू होते हैं! एक ज्ञान और दूसरा समझ। जहां तक ज्ञान का प्रश्न है तो उसमें स्मृति की अपनी भूमिका है जिसे कमतर नहीं आंका जा सकता। हालांकि परीक्षाओं का पूरा ढांचा केवल एक ही पहलू पर केंद्रित नहीं रखा जा सकता। वहीं आनलाइन आकलन प्रारूप किसी खुली किताब वाली परीक्षा के समान होगा। यह ज्ञान के प्रयोगों के मूल्यांकन की दिशा में आवश्यक परिवर्तनों को गति देगा। इसमें विषय की समझ से संबंधित परख भी बेहतर हो सकेगी। अपने शिक्षा तंत्रा में व्याप्त कमजोरियों पर अब हम और आंखें मूंदे नहीं रह सकते। हमें पाठ्यक्रम को नए सिरे से गढ़ना होगा और पढ़ाई-लिखाई के तौर-तरीकों और परीक्षा तकनीक में भी आवश्यक परिवर्तन करने होंगे।

वास्तव में आदर्श शिक्षा पद्धति ऐसी होनी चाहिए जो सूचनाओं से ज्ञान प्राप्त कराने में सहायक हो और साथ ही वह ज्ञान विवेक विकसित करे। इसके लिए ऐसा परिवेश बनना चाहिए। किसी समाज को शिक्षित बनाना बहुत ही जरूरी होता है न कि उसे साक्षर करना। साक्षरता का संबंध तो पढ़ने-लिखने और तकनीकी ज्ञान कौशल से है जबकि शिक्षित होने में इन तत्वों के अतिरिक्त नैतिक मूल्यों का भी समावेश होता है। हाल-फिलहाल यह दूर की कौड़ी लगती है। भारतीय शिक्षा में ढांचागत सुधारों को लेकर बड़े परिवर्तन की आवश्यकता है। इसमें संदेह नहीं कि अब हमें इस मार्ग की ओर तेज गति के साथ बढ़ना चाहिए। फिर भी जब यह कोलाहल शांत होगा, तब हम यह देखेंगे कि जहां परिवर्तन एक शाश्वत नियम है, वहीं यह तथ्य भी उतना ही ठोस है कि बुनियादी पहलू कभी नहीं बदलते।

जबसे इस महामारी ने दुनिया को थर्राया है, तबसे मीडिया से लेकर आम बातचीत में यही चर्चा प्रबल है कि भविष्य की दुनिया अब पहले जैसी नहीं रह जाएगी। विभिन्न् धाराओं के विद्वानों ने अपने-अपने हिसाब से भविष्यवाणियां की हैं। इनमें से अधिकांश अनुमान मात्रा ही हैं। इन अनुमानों की प्रामाणिकता को लेकर फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता परन्तु अटकल-बाजियों से काम नहीं चलता। ध्यान रहे कि जो इतिहास से सबक नहीं सीखते, वह उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं। मानव प्रजाति का लचीलापन वास्तव में हमारे लिए इतिहास का सबसे बड़ा सबक है। अपने अस्तित्व के साथ ही मानव ने आपदाओं का सामना किया और उसके क्रमिक विकास की प्रक्रिया कभी बाधित नहीं हुई। एक आम कहावत है कि चीजें जितनी बदलती हैं, उतनी ही वे मूल रूप में कायम भी रहती हैं।

अतः इस समस्या से उबरने के लिए हमें सभी क्षेत्रों में व्यापक परिवर्तन करने होंगे। यदि समय रहते हमने समय के साथ चलना आरंभ नहीं किया तो भारी संकट से हमें कोई भी नहीं बचा सकता। आने वाला समय पूरी तरह से बदल चुका है। यदि हम पुनः फिर से अपनी वही पुरानी दिनचर्या की प्रतीक्षा कर रहे हैं तो यह हम अपने आपको खुद ही गुमराह कर रहे हैं। कुछ मैनुफैक्चरर सिस्टम को छोड़कर हमें बाजार के सभी सिस्टम को आनलाइन की दिशा में ले जाना चाहिए जिससे बाजार भी कुछ रेंगने लगेंगे। बाजारों के रेंगने के लिए पैसों की जरूरत होगी। उसके लिए हमें आफिस के सभी स्टाफ को आनलाइन सर्विस के क्षेत्रा में ले जाना होगा जिससे नौकरियाँ जाने से बच सकें, लोगों के पास पैसा आए जिससे कि लोग बाजार में परचेजिंग पावर को बढ़ा सकें अन्यथा भारत आत्मनिर्भर कैसे बनेगा यह बड़ा सवाल है...? जबतक पैसा नहीं आएगा, तब तक बाजार में खरीदार नहीं आएंगे चाहे जितनी भी दुकानंे क्यों न खुल जाएं। इसलिए हमें सबसे पहले परचेजिंग पावर को मजबूत करना होगा।

इसी प्रकार हमें शिक्षा का भी ढ़ाँचा पूरी तरह से बदलना होगा। अब बिल्डिंगों की जरूरत नहीं। अब उच्चतम सिस्टम की जरूरत है जिसके माध्यम से बच्चे शिक्षा प्राप्त कर सकें। बच्चे ही हमारे देश का भविष्य हैं जिस पर तनिक भी समझौता नहीं होना चाहिए अन्यथा देश बहुत ही बुरी स्थिति में पहुँच जाएगा जहाँ से उबरने में सदियाँ लग जाएंगी। इस महामारी ने पूरे जीवन को उलझा दिया है। इसलिए हमें समय के साथ सिस्टम को ढालना ही होगा।

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