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रुंगु और झुंगु ने अपने विश्राम कर रहे गुरु के टांगों पर मारा पत्थर

Posted at: Nov 11 , 2017 by Dilersamachar 10223

दिलेर समाचार, रुंगु और झुंगु ने अपने विश्राम कर रहे गुरु के पांव दबाते समय उनकी टांगें आपस में बांट लीं। बाईं टांग रुंगु के और दायीं झुंगु के हिस्से आई। नींद में गुरुजी ने एक टांग दूसरी पर रख ली तो रुंगु-झुंगु आपस में भिड़ गए कि तेरे हिस्से वाली टांग मेरे हिस्से वाली लात पर क्यों आई। झगड़ा इतना बढ़ गया कि दोनों ने एक दूसरे के हिस्से वाली टांगों पर पत्थर दे मारे। इन बुद्धिजीवियों का तो कुछ नहीं गया परंतु गुरु जी अपंग हो गए।

पिछले कुछ दिनों से पंजाब में भी रुंगु-झुंगु का खेल देखने को मिल रहा है। कुछ लोग कहते हैं कि राष्ट्रीय राजमार्गों पर लगने वाले साइन बोर्डों पर पहले हिंदी व अंग्रेजी क्यों लिखी जा रही है? पंजाबी को तीसरे नंबर पर लिखा जा रहा है? इन प्रश्न में कुछ गलत नहीं और स्थानीय भाषा को प्राथमिकता देने की मांग भी पूरी तरह लोकतांत्रिक है परंतु अपनी बात मनवाने के लिए जिस असभ्य तरीके से इन बोर्डों पर लिखे हिंदी व अंग्रेजी नामों पर स्याही पोती जा रहा है, उससे प्रश्न उठता है कि कालिख बोर्डों पर पुत रही है या हमारे मुंह पर।

इन रुंगु-झुंगुओं की नादानी न केवल कानूनी अपराध है बल्कि इससे शर्मसार पूरी पंजाबियत हो रही है। देश का संविधान हमें अपना मत रखने व किसी मांग को लेकर आंदोलन करने की अनुमति देता है परंतु इनके लिए इस तरह असभ्य होना किसी भी सूरत में सही नहीं कहा जा सकता।

सरकारी आंकड़े चाहे कुछ भी कहें या कोई स्वीकार करे या नहीं परंतु यह अटल सत्य है कि पंजाबी पंजाब में रहने वाले हर एक की मातृभाषा है। देश में जगह-जगह पैदा हुए भाषा विवाद के चलते अपनाए गए त्रिभाषा फार्मूले के अनुसार स्थानीय भाषा को प्राथमिकता देना अनिवार्य किया है। इसके चलते पंजाब में पंजाबी भाषा को पहल मिलना इसका संवैधानिक अधिकार भी है परंतु अधिकार कभी अलोकतांत्रिक तरीके अपना कर हासिल नहीं किए जाते। राष्ट्रीय राजमार्गों पर लगने वाले साइन बोर्डों पर तीनों भाषाएं लिखने के पीछे कोई व्यवहारिक कारण भी हो सकता है। इन मार्गों का प्रयोग केवल स्थानीय निवासी ही नहीं बल्कि पूरे देश और विदेशी पर्यटक भी करते हैं। संख्या के हिसाब से स्थानीय निवासी सबसे अधिक और इसके बाद अन्य प्रदेशों से आए लोग व विदेशी पर्यटक इन मार्गों का इस्तेमाल करते हैं। चूंकि स्थानीय निवासी, वाहन चालक इन मार्गों से लगभग परिचित ही होते हैं तो उन्हें इन साइन बोर्डों की कम आवश्यकता पड़ती होगी और प्रदेश के बाहर से आए यात्रियों को अधिक। संभव है कि इसी तथ्य को ध्यान में रख कर हिंदी भाषा को पहल दी गई हो लेकिन यह एक अनुमान है, कोई तथ्य नहीं।

रही बात हिंदी व पंजाबी भाषाओं की तो भाषा विज्ञान विकीपीडिया के अनुसार, इनमें कोई टकराव नहीं है और वैश्विक दृष्टि से ये आर्य परिवार की भाषाएं हैं। वर्तमान में भाषा वैज्ञानिक इन भाषाओं को भारोपीय भाषा परिवार में शामिल करते हैं। भारोपीय समूह भाषाओं का सबसे बड़ा परिवार है और सबसे महत्वपूर्ण भी  क्योंकि अंग्रेजी,रूसी, प्राचीन फारसी, हिन्दी, पंजाबी, जर्मन ये तमाम भाषाएँ इसी समूह से संबंध रखती हैं। विश्व जनसंख्या के लगभग आधे लोग (45 प्रतिशत) भारोपीय भाषा बोलते हैं। संस्कृत, ग्रीक और लातीनी जैसी शास्त्राीय भाषाओं का संबंध भी इसी समूह से है।

कुछ विज्ञानी इसे हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार के नाम से भी पुकारते हैं। इस परिवार की सभी भाषाएँ एक ही आदिम भाषा से निकली है, उसे आदिम हिन्द-यूरोपीय भाषा का नाम दे सकता है। यह संस्कृत से बहुत मिलती-जुलती थी जैसे कि वह सांस्कृत का ही आदिम रूप हो। कहने का भाव कि हिंदी और पंजाबी एक ही मूल से निकली भाषाएं हैं और दोनों परस्पर निर्भर हैं और एक दूसरे के सहयोग से संपन्न हुई हैं। यह क्रम अभी भी निरंतर जारी है।

भाषा को लेकर पंजाब का इतिहास काफी समृद्ध व खुले दिमाग वाला रहा है। पंजाब वेदों-उपनिषदों की जन्मभूमि कहा जाता है। आधुनिक अनुसंधान बताते हैं कि शत्रादू (सतलुज), बिपाशा (ब्यास), वितस्ता (जेहलम) के किनारे बैठ कर बहुत से वेदों की रचना हुई। हरिके पत्तन की शांति में सबसे पहले गायत्राीमंत्रा गूंजा। मुसलमानों के हमलों के बाद यहां फारसी, अरबी भाषाओं का भी प्रभाव पड़ा।

गुरमुखी नाम पंजाबी शब्द श्गुरामुखी्य से बना है जिसका अर्थ है गुरु के मुख से। गुरमुखी लिपि की वर्णमाला का सृजन दूसरे सिख गुरु-गुरु अंगद जी द्वारा सोलहवीं शताब्दी में गुरु ग्रंथ साहिब लिखने के लिए किया गया था। इसका आधार लंडा वर्णमाला है। शैली की दृष्टि से गुरुमुखी के वर्ण लंडा लिपि से बने है तथा यह नागरी लिपि से भी प्रभावित है जो अधिकांश वर्णों के ऊपर शिरोरेखा से लक्षित है। पंजाब में प्रयोग में आने वाली अन्य लिपियां टाकरी तथा लंडा थीं, टाकरी भी शारदा लिपि की देवशेष अवस्था से विकसित लिपि थी। इस लिपि के वर्ण गुरु अंगद देव जी, यहां तक कि गुरु नानक जी से भी पूर्व विद्यमान थे, क्योंकि इनका मूल ब्राह्मी लिपि में है, लेकिन गुरमुखी लिपि के उद्भव का श्रेय गुरु अंगद जी को जाता है।

गुरमुखी ब्राह्मी परिवार की एक सदस्य है। टाकरी लिपि सोलहवीं सत्राहवीं शताब्दी तक उत्तरी पहाड़ी राज्यों तथा पंजाब और उसके आसपास के भागों में प्रचलित रही। संभवतः गुरु अंगद देव दी ने गुरु नानक के निर्देशन में लिखने की इस नई पद्धति को आकार दिया जो बाद में गुरमुखी के रूप में जानी गई। गुरुमुखी में गुरुग्रंथ साहिब लिखने से यह सिखों के अन्य साहित्यिक कार्यों की मुख्य लिपि बन गई लेकिन हिंदी भाषा में भी सिख साहित्य की खूब रचना हुई। गुरमुखी में अन्य भाषाएं-जैसे ब्रज भाषा, खड़ी बोली तथा अन्य हिंदुस्तानी बोलियों, संस्कृत तथा सिंधी लिखने के लिए कुछ परिवर्तन कर उसे अनुकूलित भी किया गया। यद्यपि गुरमुखी लिपि का प्रयोग मुख्यतः पंजाबी के लिए होता है, लेकिन गौणतः सिंधी भाषा के लिए भी इस लिपि का प्रयोग किया जाता है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में इन सभी भाषाओं को सम्मानित स्थान दिया गया है। पंजाब में रचे गए हिंदी साहित्य की लिपी गुरमुखी ही रही है।

हिंदी व पंजाबी के बीच इतने गहरे संबंध होने के बावजूद भी पिछली सदी के साठवें दशक में देश के इस हिस्से ने भाषा के नाम पर टकराव का विभत्स रूप देखा। सभी पंजाबियों की मातृभाषा पंजाबी को केवल सिख संप्रदाय व उसी तरह हिंदी को हिंदुओं के साथ जोडने का प्रयास हुआ। राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी ने इस विवाद पर पूर्ण विराम लगाने का प्रयास करते हुए स्पष्ट कहा कि पंजाबी ही पंजाबियों की मातृभाषा हो सकती है। आज भी भारतीय जनता पार्टी ने ही सबसे पहले भूतल परिवहन मंत्राी नितिन गडकरी को पत्रा लिख कर मांग की कि पंजाब के राष्ट्रीय राजमार्गों पर लगने वाले साइन बोर्डों पर पंजाबी भाषा को प्राथमिकता दी जाए। हिंदी व पंजाबी पंजाब वासियों की दो आंखों की तरह हैं जिसमें कोई एक आंख कम या अधिक प्रिय नहीं हो सकती। पंजाबी जहां हमारी मातृभाषा है तो वहीं हिंदी इस देश की संपर्क भाषा है। देश के अन्य हिस्सों के साथ संवाद केवल हिंदी से ही किया जा ससकता है।

केवल इतना ही नहीं, हिंदी भाषा हमारी भावनाओं के साथ जुड़ी है। हमारे अधिकतर धर्मग्रंथ इसी देवनागरी में लिखे गए हैं। इन ग्रंथों के जरिए ही हम अपने देवी-देवताओं को बोलते हुए सुनते हैं और उनसे संवाद करते हैं। किसी को अधिकार नहीं दिया जा सकता कि वह पंजाबी समाज की दो आंखों के समान हिंदी-पंजाबी के नाम से विभाजित करने का प्रयास करे क्योंकि अनजाने में भी जब एक आंख को चोट पहुंचती है तो आंसू दूसरी आंख से भी निकलते हैं। हिंदी लिखे बोर्डों पर कालिख पोतना पंजाबी संस्कृति का मूंह काला करने जैसा कृत्य है जिसकी जितनी भी निंदा की जाए कम है

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