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सम्मोहित करते हैं लता के सुर में- यतींद्र मिश्र

Posted at: Sep 29 , 2017 by Dilersamachar 9722

दिलेर समाचार,लेखक यतींद्र मिश्र, लता मंगेशकर के जीवन पर लिखी गई सबसे वृहद किताब 'लता सुर गाथा' के लेखक हैं और लता मंगेशकर के साथ 7 सालों तक चली बातचीत, मुलाकातों और साक्षात्कारों का एक अनुभव न्यूज़ 18 हिंदी और हमारे पाठकों के साथ साझा कर रहे हैं.

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आज सोचने पर आश्चर्य होता है कि कैसे लता जी के जीवन में एक लेखक के तौर पर मेरा प्रवेश हुआ. उनसे पारिवारिक जान पहचान रही है, जिसका ज़िक्र यहां ग़ैरज़रुरी है. मैं उनके बारे में कुछ लिख सकता हूं...उनकी संगीत यात्रा का दस्तावेज़ बनाते हुए कोई किताब तैयार की जा सकती है...यह तो उनके संपर्क में रहने के बाद भी देर से मेरे ख्याल में आया. उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ साहब पर किताब समाप्त करने के बाद यब मन में आया था कि ख़ाँ साहब के अलावा जिस सबसे लोकप्रिय संगीतकार के बारे में लगभग हर दूसरा भारतवासी जानने का उत्सुक है, वह निश्चित ही लता जी हैं.
मुझे याद है कि कैसे सन् 1989 में जब लता जी साठ वर्ष की हुईं थी, तब एच.एम.वी ने चार कैसेटों का एक एल्बम 'माई फेवरेट' के नाम से जारी किया था. उस समय मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता था और लता मंगेशकर के प्रेम में एक दीवाने की तरह शामिल था. मुझे आज भी याद है कि मेरे जन्मदिन पर मुझे घर में हर जन्मदिन की तरह उस साल भी जो एक सौ एक रुपए बतौर आशीर्वाद मिले थे, उससे मैंने उतने ही मूल्य का यही कैसेट एल्बम खरीदा था. उसे लेकर लगभग महीनों तक सम्मोहन की स्थिति में रहा होऊँगा, जो थाती लता मंगेशकर ने अपने सुनने वालों को अपनी तरफ से खुद की जन्मदिन भेंट सरीखा उस वक़्त दिया था. पहली बार मैंने इसी एल्बम के माध्यम से 'नौबहार', 'परख' और 'शिन शिनाकी बूबला बू' जैसी फ़िल्मों के बारे में जाना, जिन फ़िल्मों में लता जी ने अपनी जादुई आवाज़ से कुछ अमर गीतों की सर्जना की थी. बाद में मेरा लता-प्रेम बढ़ता गया और उसी अनुपात में उनके कैसेट एल्बमों का खरीदा जाना भी जुनून की हद तक बढ़ता गया. इस मजेदार खेल में बाद में मेरे संग्रह में 'सजदा', 'श्रद्धांजलि भाग 1 और 2', 'लता मंगेशकर डायमंड फ़ॉरएवर', 'लता मंगेशकर रेयर जेम्स', 'मीरा सूर कबीर' और ना जाने कितने एल्बम शामिल होते चले गए.
लता जी को सुनते हुए यह एहसास मन में भीतर कहीं गहराया कि फ़िल्म संगीत भी दरअसल कहीं न कहीं शास्त्रीय और उपशास्त्रीय संगीत की तरह ही अपने सुने जाने के लिए एक विशेष मानसिक तैयारी की मांग करता है. आप सिनेमा संगीत को चलताऊ ढंद से सुनते हुए उसकी नज़ाकत, ख़ूबसूरती और बारीकी को पकड़ नहीं सकते. मसलन, अगर किसी गीत में लता मंगेशकर या मोहम्मद रफ़ी मौजूद हैं और वे चार मिनट के गीत में किसी राग या उसकी छाया से सुर का एक पूरा स्ट्रक्चर खड़ा कर रहे हैं, तो किसी तरह सहधर्मी वाद्यों का काम वहां आकार ले रहा है, ये देखना बेहद ज़रुरी बन जाता है. हो सकता है, वहां वॉयलिन, पियानो, ट्रम्पेट, ऑर्गन या क्लैरोनेट आदि अपनी विशेष उपस्थिति में कुछ अतिरिक्त सुंदरता पैदा कर रहे हों, जो गीत की सुरुचि या आस्वाद को बढ़ाएगा. ऐसे में लता जी के द्वारा की जाने वाली गायिकी की छोटी से छोटी हरकत भी बड़े महत्व की है, जिसमें मींड़, आलाप और तान या पलटे का काम अदभुत रुप से देखा जा सकता है. अब इसमें यह बात सामने आती है कि कैसे आप चलते फिरते फ़िल्मी गीतों को सुनकर उसके आस्वादपरक दुनिया से संवाद कायम कर सकते हैं. इस लिहाज से यदि लता मंगेशकर की गायिकी को देखा जाए, तो उसमें नौशाद, एस. डी. बर्मन, रोशन, मदनमोहन, जयदेव, सलिल चौधरी और सी. रामचंद्र जैसे ढेरों संगीतकारों की सोहबत में गाए गए सैंकड़ो अमर गीतों की बात करना भी प्रासंगिक बन जाता है.
फिर गीतकारों के शब्दों को लेकर किया गया नवाचार भी अलग से विमर्श की माँग करता ह. ये कुछ ऐसे बिंदु थे जिन्हें आधार बनाकर मैंने 'लता सुर गाथा' की कल्पना की थी. मेरा यह व्यक्तिगत विचार रहा है कि लता जी की लोकप्रिय छवि से अलग उनके भीतर मौजूद संगीत के गंभीर विचारक के रुप को उजागर करती हुई, एक ऐसी किताब लिखी जानी चाहिए, जो सालों बाद तक इस बात के लिए एक संदर्भ पुस्तक की तरह देखी जा सके, जिसमें एक बड़ी पार्श्वगायिका के सांगीतिक जीवन पर गंभीरता से विचार किया गया है. एक ऐसे संवाद और संघर्ष का प्रदर्शन, जिसमें भाषा भी संगीत के व्याकरण से ली गई हो और जिसके विश्लेषण के औजार भी पॉपुलर फ़िल्म संगीत के स्टूडियो से चलकर आते हों.
मेरे लिए लता मंगेशकर होने की सार्थकता इस बात में बसती है कि कैसे एक आवाज़ की दुनिया अपनी प्रभावपूर्ण उपस्थिति से एक पूरे सिनेमाई सांगीतिक विरासत में तब्दील होती है. लता जी को जानना एक हद तक हिन्दी फ़िल्म संगीत इतिहास के पन्ने पलटने जैसा है, जिसमें ढेरों संगीतकार, विभिन्न क्षेत्रों से आए हुए अपनी अपनी भाषा और बोलियों से समृद्ध गीतकार, सहयोगी पार्श्वगायक और गायिकाओं की एक लंबी जमात शामिल रही है. सन् 1947 से शुरु हुई यह यात्रा सन् 2017 तक आते हुए कैसे सत्तर सालों में लता मंगेशकर की गायिकी की मुखापेक्षी रही है, इस पर किया गया कोई भी काम, बेहद अनुशासन, प्रामाणिक सामग्री संकलन और गंभीरता की मांग करता है.
मेरी किताब की यात्रा भी सात वर्षों तक टुकड़ों में लंबे चले आत्मीय संवाद के अंशो पर आधारित है. इसमें तमाम ऐसे पल आए हैं, जब लगा कि लता जी की बात अब पूरी हो गई मगर उसी वक़्त उनके पास मौजूद संगीत और सिनेमा की दुनिया के संस्मरण, कथाएं और ग्रीन रुम रिहर्सल के किस्सों का इतना बड़ा ख़जाना है कि इसे बांधना मुश्किल है. मेरी किताब 639 पृष्ठों में सिमटी हुई है लेकिन इसमें अभी भी लता जी से जुड़ी और किस्से कहानियां आ सकती हैं.
आज जब उनका जन्मदिन है और वो 89वें वर्ष की एक बेहद गरिमामय उम्र में आ पहुंची हैं, तो ऐसे में उन्हें प्रणाम करते हुए और वर्ष भर पूर्व उनके करोड़ों प्रशंसको को उनकी संगीत यात्रा सौंपकर मुझे एक सात्विक किस्म का आनंद महसूस हो रहा है. लता जी सौ बरस से भी अधिक उम्र हम सभी के बीच बनी रहें और अपने आशीष से मुझ जैसे लेखक को असीसती रहें, ऐसी कामना करता हूं और इस किताब को पढ़कर कोई उनके जैसा बनना चाहे और वैसा ही संघर्ष करने को प्रस्तुत हों, तो मेरी किताब सफल होगी.

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